हमारी पीढ़ी और पहले की दो तीन पीढ़ियां या हम यह कह सकते है की ६० के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी की शुरूवात तक पिता पुत्र और परिवार के अन्य बड़े बुजुर्गों के बीच संवाद हीनता की वजह से दैनिक जीवन के सनातन संस्कारों को ना तो हमारे बड़े बुजुर्गो या माता पिता ने अपने बच्चो को बताया, न ही हमे देखने सुनने को मिला जिसका सबसे बड़ा कारण हजारों वर्षों के विदेशी सत्ता से आजादी के बाद भारतीय समाज इतना भ्रमित हों चुका था की अपनी वास्त्विक पहचान और संस्कृति भूलकर, मिश्रित संस्कार और संस्कृति के साथ आगे बढ़ रहा था, भारत की मूल वैदिक शिक्षा तहस नहस हो चुकी थी जिसकी वजह से आजादी के बाद खासतौर पर ६० के दशक के बाद की पीढ़ी की परवरिश बहुत ही संकीर्ण व संयमित माहौल में हुआ, परिणाम यह हुआ की इस दौर में जन्म लेने वाले बच्चे कभी ऐसे प्रश्नों का किसी से संकोच वश जवाब ही नहीं पूछ पाए। इस दौर में बच्चों का आपने समाज के बड़े बुजुर्गो से ज्यादा सवाल जवाब करना भी अच्छा नहीं माना जाता था जो बच्चे ज्यादा सवाल जवाब करते लोग ऐसे बच्चों को संस्कारहीन बताने लगते और ऐसा अक्सर ऐसे ही बुजुर्ग किया करते जिन्हे बच्चों के गुढ़ प्रश्नों का उत्तर नहीं पता होता।
ऐसे बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर मेरे पीढ़ी और बाद की पीढ़ी के लोगो को भी नही पता क्यों कि कभी सुना पढ़ा जाना ही नहीं। ऐसा इस लिए की हमारे समाज में लोगो का मानना है बच्चों का स्कूल में अच्छा मार्क्स जरुर आना चाहिए भले ही वह खेल या अन्य विषय में रुचि ना ले, दुर्भाग्य वश लोगो को यह नही समझ था कि खेल प्रतियोगिता में भाग ना लेने से बच्चा शारिरिक रूप से कमजोर होता है बच्चे का मानसिक विकास भी धीमी गति से होता है। मेरा मानना है कि ऐसे माहौल के पीछे एक बहुत प्रचलित लोककोक्ति का प्रभाव भी रहा है अक्सर घर के मुखिया या माता पिता को हम सबने अपने बच्चों को यह कहते सुना है कि"पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब" कुछ हद तक यह लोककोक्ती तो सही है लेकिन लोग यह नहीं समझ पाते की जीवन के हर पड़ाव पर संतुलन होना बहुत जरुरी होता है। यानी कि बच्चे का सर्वांगीण विकास जरुरी होता है ना कि केवल स्कूल में अच्छे मार्क्स आना।
भारतीय सनातन समाज मोदी जी का ऋणी है जो उन्होंने सूचना तकनीकी तंत्र को गाँव गांव तक पहुंचकर डिजिटल शिक्षा के माध्यम से लोगो को इतना जागरुक करने का कार्य किया की आज डिजिटल और सोशल मीडिया के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता के गुढ़ विषयों के बारे में जन जन तक जानकारी पहुंच रहीं है जिससे वर्तमान व आने वाली पीढ़ी ऐसी जानकारियों से अनभिज्ञ नही रहेगी और हमारी भारतीय संस्कृति जड़ मजबूत होगी। भारतीय संस्कृति में देव स्थान दर्शन से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण जानकारी यह है कि जब भी किसी मंदिर में दर्शन के लिए जाएं तो दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पेडी या चौखट पर थोड़ी देर ज़रूर बैठे।
क्या आप जानते हैं इस परंपरा के पीछे का गुढ़ रहस्य क्या है ?
आइए जानते है वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ करके हमें एक श्लोक को क्यों पढ़ना चाहिये और अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यह क्यों बताना चाहिये....
अनायासेन मरणम् ,बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम् ।।
इस श्लोक का अर्थ है-
अनायासेन मरणम्...
अर्थात बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और हम कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर पड़े पड़े, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं !!
बिना देन्येन जीवनम्...
अर्थात परवशता का जीवन ना हो मतलब हमें कभी किसी के सहारे ना पड़े रहना पड़े, जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हो, ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सके !!
देहांते तव सानिध्यम..
अर्थात जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो, जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए, उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले !!
देहि में परमेशवरम्...
हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना !!
यह प्रार्थना करें।
गाड़ी, घर, धन, नौकरी,लड़का, लड़की, अच्छा पति-पत्नी, यह मांगना नहीं पड़ता है यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं इसीलिए जब भी कभी कही भी देव स्थान पर दर्शन करने जाए तो उपरोक्त श्लोक के अनुसार भाव लेकर जाए और मंदिर में दर्शन के बाद कुछ समय मंदिर की पैड़ी पर बैठकर उपरोक्त भाव की प्रार्थना करिएगा।
उपरोक्त श्लोक प्रार्थना है, याचना नहीं।
क्यों कि याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है जैसे कि घर, व्यापार, नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है।
प्रार्थना का अर्थ विशिष्ट, श्रेष्ठ निवेदन से है न कि याचना से अर्थार्थ जब भी किसी शक्ति पीठ या देव स्थान पर जाए तो प्रभु से प्रार्थना करें ना की याचना सबसे श्रेष्ठ प्रार्थना यही होगा की ऊपर लिखित श्लोक को मन ही मन दोहराएं।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आजकल लोग यदि मंदिर की पैड़ी पर बैठते भी है तो वहा भी अपने घर, व्यापार व राजनीति की चर्चा करते हैं और केवल अपना थकान मिटाने के लिए ही बैठते है परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई। को बार बार दोहराना।
सब से जरूरी बात... जब भी मंदिर में दर्शन करने जाए तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए, निहारना चाहिए, उनके दर्शन करना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं, आंखें बंद क्यों करना हम तो भगवान का दर्शन करने जाते हैं, तो भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, श्रंगार का, संपूर्णानंद लें। आंखों में उस मोहक दृश्य भर ले भगवान के उस स्वरूप को और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें। जब ठाकुर जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें, नेत्रों को बंद करने के पश्चात उपरोक्त श्लोक का पाठ करें, यहीं शास्त्र और बड़े बुजुर्गो का कहना हैं ...
जय माता दी 💐🙏