संत रविदास जयंती के अवसर पर संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत जी महाराष्ट्र में रविदास जयंती कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रुप में शामिल हुए थे जहा उनके उद्बोधन के कुछ अंश को लेकर देश के राजनितिक गलियारे में बडी चर्चा का विषय बना है ......
राजनितिक गलियारा शब्द मैं इस लिए बोल रहा हूं क्यों कि आम जनता तो अपने रोजी रोटी और दैनिक जीवन के समस्याओं में इतना उलझी हुई है कि दिन भर मेहनत करके थका हारा शाम को आम आदमी जब घर लौटता है तो दो रोटी खाकर जल्दी सो जाता है कि सुबह उठकर उसे अगले दिन की तैयारी करनी होती है कौन कहा क्या बोल रहा है क्यों बोल रहा है ये तो उसे गली नुक्कड़ चौराहों पर पान चाय की दूकानों पर अपने अपने नेताओं की शेखी बखार रहे लोगो से पता चलता है और वही उन्हे समझाते भी है कि कौन नेता क्या बोला और उसका क्या मतलब है वो भी अपने पार्टी और नेता के हित के अनुसार .........
इस लिए आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोहन भागवत जी क्या बोल रहे हैं या कोई अन्य नेता क्या बोल रहा है.....
फिलहाल आइए बात करते है मोहन भागवत जी के व्यत्व्य की जिसकी चर्चा चल रही है मुझे लगता है भागवत जी जिस मंच से जिस महान व्यतित्व की जयंती पर बोल रहे थे और जो भी बोला उनका तात्पर्य सनातन समाज के विघटन को दूर करने की दूरदृष्टि का उदबोधन था न कि किसी वर्ग विशेष या समुदाय को नाराज करना या आरोपित करना.......... .....
वैसे इस बात में पुरी सत्यता है कि सनातन वैदिक व्यवस्था में जाति सूचक शब्द को कहीं भी ज्यादा महत्ता नही दिया गया है। ये तो समाज के कुछ मठाधीश लोगों ने समय समय पर अपने निहित स्वार्थ और अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए समाज में नाकारात्मक माहौल पैदा किया वैसे पंडित और ब्राह्मण दोनों शब्दों का अर्थ स्थान कर्म और परिस्थिति के अनुसार बदल जाता है। जैसे पंडित शब्द आम बोल चाल में लोग बहुत जानकार अनुभवी व ज्ञानी व्यक्ति को भी बोलते है "चल बड़ा आई है पंडित बने आपन ज्ञान मत दा " ऐसे ही बहुत से अन्य शब्द है जिनका अर्थ संदर्भ बदल जाता है वाक्या अनुसार ........
वैसे भी जाति सूचक शब्द हमेशा से राजनितिक और व्यक्तिगत स्वार्थ साधने का माध्यम रहा है जिसका पिछले लगभग 1500 वर्षो से परंपरागत तरीके से भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशी आक्रमणकरियों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया, संतानियो को जाति में विभाजित करके लाभ उठाया और हजारों वर्षों तक राज किया, भारत की समृद्धि लुटा, संस्कृति संस्कार को तोड़ा मडोड़ा तहस नहस कर दिया और भारतीय सनातनी हजारों वर्षो तक ये समझ ही नही पाया, अपनी समृद्धि और श्रेष्ठता के अहंकार से अपने आपको बाहर ही नहीं निकाल पाया ....... जो देश की स्वतंत्रता के बाद भी लगातार जारी रहा, अलग अलग राजनितिक नेता और पार्टियां समय समय पर सनातन समाज को एकजुट करने की बजाए अपने स्वार्थ और सत्ता के लालच में विघटित बनाए रखा जो देश और समाज के विकाश को प्रभावती किया और कमज़ोर बनाया है ............
आज आजादी के 75वे वर्ष बाद भी भारत संघर्ष कर रहा है विकसित देश की श्रेणी में अपना स्थान बनाने के लिए जिसे विक्रमजीत मौर्य के समय में पूरा विश्व सोने की चिड़िया के नाम से जानता था। बड़ा दुर्भाग्य यह है भारत से एक दो साल पहले या बाद में आजाद हुए कई देश आजादी के ३०-४० वर्षो के ही आर्थिक विकाश की ऊंचाई छू लिए थे और उत्तरोत्तर प्रगति के साथ आज़ एक विकसित राष्ट्र के रूप में विश्व में अपना परचम फहरा रहे है जिसका सबसे बड़ा उदहारण हमारा निकटम पड़ोसी चीन है ...........
यदि भारत आज भी संघर्ष कर रहा है तो उसके पीछे एक मुख्य कारण भारत की जातिवादी और क्षेत्रवादी राजनीत है इसी जातिवादी क्षेत्रवादी राजनीत के गठबंधन को तोड़ने और सनातन समाज को जोड़कर एक छत के नीचे खड़ा करने का प्रयास संघ प्रमुख की सोच है .............
संघ प्रमुख की इसी सोच में सनातन समाज का और भारत देश का हित है जो भारत को विश्व के समृद्धशाली राष्ट्र की श्रेणी में पुनः खड़ा कर सकता है। इस लिए देश के प्रत्येक नागरिक को अपने दृष्टिकोण का दायरा बढ़ाना होगा अपनी सोच को बड़ा करना होगा जाति और क्षेत्रवाद की संकीर्णता से बहार आना होगा। पूरा सनातन समाज का एक ही जाति है, वो है, सनातनी भारतीय। बस यही एक ही परिचय है समस्त भारतवासियो का सनातनियो का और कुछ नही। ये भावना भारत के प्रत्येक नागरिक की होनी चाहिए तभी एक सशक्त और समृद्धिशाली राष्ट्र का विकाश संभव हो पाएगा ........
हालाकि मोहन भागवत जी ने जो बात कहीं वो निश्चय ही बड़ा आश्चर्य का विषय है की इतना विद्वान सुलझा हुआ परिपक्व व्यक्ति देश के एक सर्वश्रेष्ठ संगठन का प्रमुख इतना गैर जिम्मेदारीपूर्ण व्यक्तव्य कैसे दे सकते है जबकि वे स्वयं एक ब्राह्मण परिवार से है लेकिन इतना बड़ा व्यक्तित्व यदि ऐसा बोल दिए तो उन शब्दों के आगे पीछे के वक्तव्यों और विषय स्थान व परिस्थिति को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए और उन संदेशों का वास्तविक संदर्भ क्या है उसको भी समझना चाहिए .......
भागवत जी के व्यकव्यो का विस्ताविक संदर्भ यही है की जो सनातनी अपने धर्म को छोड़कर किसी और धर्म को अपना लिया है वो घर वापसी करे जाती धर्म के कीड़े से बाहर निकले अपने सनातन समाज व धर्म का सम्मान करे। जिन लोगों से पहले कुछ गलतियां हुईं उसको सुधारे और सनातन समाज की एकता अखंडता को मजबूत बनाएं रखने के लिए अपना सर्व श्रेष्ठ योगदान करे। वैसे भी जाती धर्म से ऊपर मानवता और इंसानियत हैं जिसका जीवन में अनुकरण करना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है।
इसलिए हम सबको राष्ट्रहित में जाति क्षेत्र के दायरे से बाहर निकल समाज में एकजुटता स्थापित करना चाहिए।
जय हिंद। जय भारत।।
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