महाभारत युद्ध के मुख्य कारणों में से एक कारण धृतराष्ट्र स्वयं थे उनका राज्य के प्रति अत्यधिक मोह व लोभ और अपने पुत्रो की अपेक्षा पांडव पुत्रों का अधिक संस्कारी, सदाचारी व गुणवान होने का प्रभाव उन्हे अंदर से राजपाठ छूटने का भय पैदा करता था जिससे पांडवो के प्रति उनके अदंर ईर्ष्या का भाव बन गया था जो धृतराष्ट्र को व्यवहारिक रूप से अंधा बना दिया था और वे एक राजा का वास्तविक धर्म निभाने मे असफल रहे यह सब कुछ कही न कही उनके पूर्व जन्म के कर्मफल प्रारब्ध के प्रभाव के कारण हो रहा था लेकिन यदि वे चाहते तो अपने वर्तमान जन्म के कर्म, बुद्धि, विवेक, त्याग व सदाचार से उस प्रभाव को सुधार सकते थे परन्तु उनका स्व मन पर दृढ़ संयम न होने से उनका प्रारब्ध उन पर भारी पड़ा और कुरुक्षेत्र के मैदान में उनको अपने सौ पुत्रों का बलिदान देना पड़ा।
धृतराष्ट्र जन्मांध क्यों थे ? इसके बारे में शायद ही कुछ लोगों को पता हो लेकिन पुराणों में उनके पूर्व जन्म की एक कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में एक बार उन्होंने बिना देखे ही जंगल की झाड़ियों में आग लगा दिया था जहाँ एक सर्प, नागिन के १०० अंडेों की देखरेख कर रहा था, जो उसके बच्चो को जन्म देने ही वाली थी किन्तु उसी समय आग लग गई। जब नागिन ने अपनी आँखों के सामने अपनी संतानों की हत्या देखी, तो अत्यंत क्रोधित हो राजा को श्राप दे दिया कि "जिस प्रकार मेरी आँखों के सामने तूने मेरे १०० पुत्रो की हत्या की है, जिनका मुख भी मैं नहीं देख सकी... उसी प्रकार तेरे १०० पुत्र तेरी आँखों के सामने ही मारे जायेंगे और तू उनके मुख कभी नहीं देख सकेगा।
प्रारब्ध का खेल देखिए कि सर्प-श्राप के कारण कर्मफल फलित करने के लिए ईश्वर ने ऐसी रचना रची की धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे पैदा हुए और द्रौपदी जिनका एक दुसरा नाम याग्निक था क्यो कि उनका जन्म अग्नि वेदी से हुआ था यानि द्रौपदी अग्नि पुत्री थी जो कि महाभारत युद्ध की दुसरी मुख्य पात्र थी जिन्होंने धृतराष्ट्र के लाड़ले पुत्र पर ऐसा व्यंग बाण छोड़ा कि दुर्योधन ने अपने विवेकहीनता की सारी पराकाष्ठा पार कर अपने कुल का ही सर्वनाशक बन गया। यहाँ एक बात समझिये कि पूर्व जन्म में नागिन के पुत्रों के मृत्यु का कारण अग्नि था तो धृतराष्ट्र के पुत्रों के मृत्यु का कारण भी अग्नि पुत्री द्रौपदी ही बनी और धृतराष्ट के १०० पुत्र उनकी आँखों के सामने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में मारे गये और राजा अपने पुत्रो का मुख कभी नहीं देख सके, विधि का विधान देखिये महाभारत युद्ध के पश्चात् जब धृतराष्ट्र को अपनी गलतियों का एहसास हुआ तो कुछ समय बाद उन्होंने अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करने के लिए अपने कुल गुरू वेद व्यास के आश्रम में जाकर तपस्या करने की इच्छा युधिष्ठिर से व्यक्त किया तब गांधारी व कुंती भी उनके साथ महल छोड़ जंगल में व्यास जी के आश्रम में प्रवास करने लगे। कुछ समय पश्चात एक दिन तीनों ध्यान साधना में लीन थे कि अचानक जंगल में आग लग गयी और तीनों की जीवन लीला आग की तेज लपटों ने समाप्त कर दिया।
कर्मो के बंधनों से मुक्ति असंभव है इसलिए कभी भी किसी की आत्मा को केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए दुःखी पीड़ित न होने दे क्यो कि किसी कमजोर असहाय की अंतरआत्मा की पीड़ा से निकला श्राप निश्चित रूप से फलित होता है। इसका एक और उदाहरण महाभारत कथा से मिलता है युद्ध समाप्ति के पश्चात भगवान श्री कृष्ण पांडवो को लेकर जब धृतराष्ट्र व गांधारी के पास गये तब दोनों अपने सौ पुत्रों के मृत्यु की वजह से बहुत दुःखी थे वार्ता के दौरान पुत्र मोह में दुःखी गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दे दिया कि वासुदेव तुम तो भगवान हो तुम तो सब कुछ जानते थे तो क्यो युद्ध को रोका नहीं तुम भी मेरे पुत्रों के मृत्यु के कारण हो और तुम्हारा परिवार व राजपाठ भी इसी प्रकार नष्ट हो जायेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही भगवान श्री कृष्ण की द्वारिका भी हस्तिनापुर की तरह नष्ट हुईं और श्री कृष्ण की मृत्यु भी बहुत पीड़ादायी थी।
जय श्री कृष्ण। ।
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