Sunday, 23 February 2025

प्रयागराज में माघ मेला का प्रावधान आत्मिक शुद्धि व आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम है न कि पाप कर्मों से मुक्ति का

सनातन संस्कृति के सबसे बड़े ब्रह्मांडीय महापर्व महाकुंभ अमृत स्नान, प्रयागराज के त्रिवेणी संगम तट पर १३ जनवरी पूस पुर्णिमा से शुरू हुआ और २६ फरवरी महाशिवरात्रि स्नान के साथ समाप्त होना हैं। माघ मास के अंतिम स्नान पर्व माघी पूर्णिमा का स्नान संपन्न होने तक सरकारी आंकड़ों के अनुसार ३० दिनों में लगभग ४०- ४५ करोड़ लोगों ने अमृत स्नान कर लिया था अनुमान है कि महाशिवरात्रि तक यह आंकड़ा ५०- ५५ करोड़ पार कर जाएगा। महाकुंभ में भक्तों का रेला देखकर यह प्रमाणित हो रहा है कि भारत का सनातनी समाज अपने धर्म, संस्कृति और परंपराओं के निर्वहन के संदर्भ में जागृत हो रहा है और स्वयं को आध्यामिक यात्रा से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। बड़े गर्व की बात यह है कि महाकुंभ में स्नान केवल भारतीय नागरिक ही नहीं बल्कि विश्व के १९३ देशों के लगभग १५ लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने गंगा जमुना के पवित्र संगम जल में आस्था व विश्वास की डुबकी लगाने और सनातन संस्कृति को समझने और आत्मसात करने भारत आए। 

महाकुंभ मेले में भ्रमण के दौरान ऐसा अनुभव हुआ की करोड़ों की संख्या मे स्नान और भ्रमण करने आ रहे लोगो की तीन श्रेणियां है।                                                              जिनमें पहली श्रेणी है साधु संतों और सांसारिक जीवन यापन करने वाले बुजुर्ग महिला एवं पुरुष कल्पवासी की जो पुण्य अर्जन एवं आध्यात्मिक उन्नति के उद्देश्य से माघ मास में संगम तट पर लगभग ४० दिनों के प्रवास पर है।                            दूसरी श्रेणी युवा जिज्ञासुओं की है जो सनातन संस्कृति परम्परा अखाड़ों और साधु संतों की जीवन शैली एवं चमत्कारी शक्तियों को नजदीक से देखना समझना चाहते है।                      तीसरी श्रेणी है उन तामसिक और दुष्कर्मी लोगों की, जो इस भाव से अमृत स्नान के लिए महाकुंभ में टूट पड़े है की उन्हें उनके पाप कर्मों से मुक्ति मिल जाएगी जो महाकुंभ स्नान से जुड़ा सबसे बड़ा मिथ है।                                          दुर्भाग्य से VIP व्यवस्था से स्नान लाभ लेने वाले अधिकांश लोग इसी श्रेणी में है। इन लोगों को इस बात का सबसे ज्यादा आकर्षण है कि ज्योतिषीय गढ़ना के अनुसार १४४ वर्षों में एक बार लगने वाले इस विशेष शुभ मुहूर्त में त्रिवेणी संगम के दिव्य जल में स्नान करने से पाप कर्मों के नकारात्मक प्रभाव से मुक्ति मिल जाएगी। इससे बड़ा अज्ञानता और क्या हो सकतीं है इन  तथाकथित उच्च वर्ग के धनाढ्य समूह की जो यह मानता है की महाकुंभ स्नान, भागवत कथा और दान से पाप कर्मों के प्रभाव से मुक्ति मिल जाएगी। जबकि सत्य यह है की सनातन संस्कृति में इन सब धार्मिक आयोजनों का प्रावधान मनुष्य की आत्मिक शुद्धि, आध्यात्मिक उन्नति, प्रायश्चित करने और सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा के उद्देश्य से बनाए गए है न की पाप कर्मों से मुक्ति के लिए क्यों कि कर्मों का तो केवल एक ही गति है कर्ता को परिणाम सुनिश्चित करना। इसी लिए संत जन और सनातन समाज के बुजुर्ग ऐसा कहा करते है कि सदैव अच्छा सुनो अच्छा सोचो अच्छा बोलो अच्छा करो जिससे की वहीं सब प्राप्त हो, बुरे विचार और कर्मों से बचना ही पाप कर्मों से बचने का सबसे बड़ा उपाय है। 

आइए अब समझते है कि क्या यह सच है की लोग को केवल महाकुंभ में स्नान से पापों से मुक्ति यानी मोक्ष की गति प्राप्त हो जाती है ?                                                                  इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें यह समझना होगा की पाप कर्म क्या है इनकी श्रेणियां क्या है ? 

वैसे तो मन में पल पल आ रहे बुरे विचार भी एक प्रकार के पाप कर्म ही होते है जिसकी विस्तृत व्याख्या भगवतगीता में पढ़ने समझने को मिलता है जिसके अनुसार पाप कर्मों की तीन श्रेणियां है सुक्ष्म, मध्यम, वृहद ( विकृत ) कर्म या यह कह सकते है ऐसे कर्म जो षड्यंत्रकारी हों और पूरे संज्ञान में निष्पादित किए गए हो।                                              सूक्ष्म पाप कर्म जो केवल बुरे विचारों तक सीमित होते है अक्सर मन की विकृति की वजह से आते है। मध्यम पाप कर्म वाणी और व्यवहार से प्रभावित होते है जो सुक्ष्म कर्म के विचारों को रूपांतरित करने की प्लानिंग तक सीमित होते है, वृहद कर्म यानी पूर्ण कर्म शारीरिक वाह्य क्रिया के परिणाम होते है अर्थात सूक्ष्म और मध्यम श्रेणी के कर्मों का क्रियान्वयन कर देना पूर्ण कर्म बन जाता है। सूक्ष्म एवं मध्यम श्रेणी के कर्मों की शुद्धि तो प्रायश्चित से संभव है लेकिन पूर्ण कर्म यानी परिणाम में बदल चुके पाप कर्मों से मुक्ति बड़ा कठिन है ऐसे कर्मों का फल मनुष्य को भोगने ही पड़ते हैं हो सकता है उसका रूप अलग हो। कर्मफल भोग के विषय में भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को सांसारिक जीवन का उपदेश देते हुए स्पष्ट रूप से समझाया कि मनुष्य के कर्मो पर उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होता क्योंकि वह उनके प्रारब्ध और विवेक से प्रभावित होते जिसके फल मनुष्य को स्वयं को भोगने ही होते है अर्थात् जिसका जैसा कर्म होता है उसका प्रारब्ध उसके अनुसार ही निर्धारित होता है अर्थात पूर्ण कर्म कभी नष्ट नहीं होते जब तक की उसके परिणाम कर्ता को प्राप्त न हो जाए।

फिर भी सनातन वैदिक ग्रन्थ जिसे हम साक्षात् ईश्वर के विचार और वाणी कह सकते है मनुष्य को अपने पाप कर्मों के पश्चाताप के लिए मार्गदर्शन करता है जिससे कि मनुष्य स्वयं से स्वयं की आत्म शुद्धि कर बुरे कर्मों के बुरे प्रभाव से स्वयं को बचा सके। जिनको आधार मानकर हमारे ऋषि मुनियों ने सरल और सहज तरीके से मनुष्यों को दैनिक जीवन में उस व्यवस्था को अपनाकर आत्मशुद्धि का राह दिखाया है। उन्हीं में से एक व्यवस्था है वर्ष में एक बार माघ मास में ३० दिनों का कल्पवास। जिसका पालन स्वयं राजा हर्षवर्धन भी किया करते थे जिससे की राजधर्म का पालन करते समय यदि उनसे वर्ष भर में कोई त्रुटि हुई हो तो उसका पश्चाताप हो और आगे कोई त्रुटि न हो और संत समागम से आत्मशुद्धि हो सके। 

राजा हर्षवर्धन द्वारा प्रयागराज में कल्पवास प्रवास की व्यवस्था प्रमाणित करती है की माघ मास में महीने भर स्नान और संत समागम आध्यात्मिक उन्नति, आत्मशुद्धि और भविष्य में पाप कर्मों से बचने का माध्यम है न की पापों से मुक्ति का। कल्पवास की इस व्यवस्था में भी नियम संयम एवम् श्रद्धा भाव विश्वास का बडा महत्त्व है जैसे स्नान ध्यान, जप तप, दान पुण्य अर्थात जो व्यक्ति सनातन व्यवस्था के अनुरूप पश्चाताप की क्रिया को करेगा केवल वहीं पाप कर्मों के प्रभाव से स्वयं को बचा सकेगा त्रुटि की स्थिति में पश्चाताप की प्रक्रिया पूर्ण नहीं होगी। यानी माघ मास में कुंभ स्नान ध्यान- जप - तप (यानी त्याग ) के साथ ही पूर्ण हो तब जाकर पुण्य प्राप्त होगा और पाप कटेने  की संभावना बनेगी न कि केवल VIP व्यवस्था और भीड़ चाल में स्नान से।

सनातन जीवन शैली में पाप कर्मों के प्रारब्ध से मुक्ति का सीधा गणित यह समझ आता है कि पुण्य कर्म की अधिकता और पाप कर्म की शून्यता अर्थात् जितना पुण्य का पलड़ा बढ़ता जायेगा उतना पाप घटता जाएगा और धीरे धीरे जब यह शुन्य हो जाएगा केवल इसी स्थिति में पाप कर्मों से मुक्ति मिल सकती हैं न की वर्ष में केवल एक बार एक दिन या एक महीने के स्नान- ध्यान- जप- तप- दान से संभव होगा। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि यह एक निरंतर जारी रखने वाली लम्बी प्रक्रिया है जिसके साथ व्यक्ति को दैनिक जीवन में होने वाले पाप कर्मों की पुनरावृत्ति को भी नियंत्रित रखना होता है तब जाकर पाप कर्मों से मुक्ति का यह गणित सिद्ध होता है।

इसको दुसरे तरीके से हम ऐसे समझ सकते है कि पाप कर्मों से मुक्ति आत्मिक शुद्धि से भी संभव है अर्थात् मन विचार वाणी व्यवहार की शुद्धि से। जिसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान, सत्संग, प्राणायाम एवम् वाणी पर नियंत्रण आवश्यक है। गंगा स्नान, कल्पवास, त्याग और प्रायश्चित इसका माध्यम है। इसी लिए सनातन ऋषि मुनियों के सलाह पर सांसारिक जीवन यापन करने वाले मनुष्यों के लिए त्रिवेणी संगम तट पर कल्पवास और स्नान का प्रावधान किए गए है।

पाप कर्मों से मुक्ति और आध्यात्मिक उन्नति की निरन्तर जारी रखनी वाली प्रक्रिया में माघ मास में कल्पवास और त्रिवेणी संगम तट पर स्नान के अलावा सनातन संस्कृति के अनुसार पूरे वर्ष में महत्वपूर्ण पर्वों जैसे पूर्णिमा एकादशी त्रयोदशी शिवरात्रि अमावस्या आदि पर गंगा जमुना नर्मदा ताप्ती कृष्णा कावेरी नदियों के तट पर भी स्नान से भी आत्मिक शुद्धि और भगवत भक्ति का राह प्रशस्त होता है और मनुष्य को सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलता लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा जब व्यक्ति शुद्ध भाव, बुरे कर्मों की पुनरावृत्ति न करने के दृढ़ संकल्प, मजबूत इच्छा शक्ति के साथ नियम संयम का पालन करते हुए दिव्य नदियों के जल में स्नान को जाए केवल देखा देखि गंगा स्नान से कुछ भी नहीं प्राप्त होने वाला है। 

पाप कर्म से मुक्ति तो केवल प्रायश्चित व पाप कर्म के पुनरावृत्ति से बचने के संकल्प से, स्वयं के कर्मो के सुधार और पाप कर्म भोग ( यानी कर्म पल को सहन करने ) से ही संभव होता है कोई अन्य रास्ता है ही नहीं पाप कर्म से मुक्ति का।

अतः हम यह कह सकते है की गंगा स्नान से बुरे विचारों यानी सूक्ष्म कर्म और उसकी प्लानिंग यानी मध्यम श्रेणी के कर्म के प्रभाव संभवतः नष्ट हो जाए क्योंकि प्रभु बहुत दयालु है और शुद्ध भाव से स्वयं के सुधार के संकल्प के साथ जब कोई भक्त उनके शरण में डुबकी लगाता है तो वो अपने शरण में सुधार की भावना से आए भक्तों को शुद्ध कर सदमार्ग पर चलने का मौका देते है और मनुष्य के सूक्ष्म और मध्यम श्रेणी के पाप कर्म नष्ट हो जाते है लेकिन जो पाप कर्म क्रियान्वित हो चुका होता है पूर्ण कर्म बन चुका है उसका परिणाम तो मनुष्य को भुगतना ही पड़ता है किसी न किसी रूप में। उम्र लम्बी है तो सम्भवतः वर्तमान जन्म में ही नहीं तो अगले जन्म में प्रारब्ध रूप में क्यों कि शरीर नष्ट होता है आत्मा नष्ट नहीं होती आत्मा अजर अमर है और मनुष्य कर्मों की छाप शरीर में विद्यमान आत्मा पर सदैव के लिए बन जाता है और वह तब तक बना रहता है जब तक कि वह परिणाम रूप में आत्मा को प्राप्त न हो जाए। इसी लिए जब आत्मा दूसरा जन्म लेती है तो उसे अपने उन पाप कर्म को किसी न किसी रूप में भोगना ही पड़ता है।
इस बात को हम इस प्रकार भी समझ सकते है कि यदि हमने कोई बीज बोया है तो वो एक निश्चित समय के बाद पौधा बनेगा और फिर कुछ निश्चित समय बाद फल देगा ही यदि किसी प्रकार से उसे नष्ट न किया जाए और उसका नष्ट होना इस बात पर निर्भर करेगा कि व्यक्ति उसको नष्ट करने का किस प्रकार से प्रयास कर रहा है। जैसे कि व्यक्ति गंगा स्नान तो इस विचार से कर रहा है जाने अनजाने में कोई पाप कर्म हुआ तो नष्ट हो जाए लेकिन गंगा स्नान करके पुनः अपने दुष्ट विचारों के अनुरूप कार्य करते रहना से तो पाप कर्म नहीं कट जाएंगे। ऐसा व्यवहार करके अज्ञानता वश अक्सर लोग भगवान को ही धोखा देने का कार्य करते है, खुद से ही सोचिए क्या ब्रह्मांड की कोई शक्ति भगवान को धोखा दे सकती है नहीं न
और जब साधारण मनुष्य धोखा देने वाले व्यक्ति को जल्दी क्षमा नहीं कर पाता है तो भगवान कैसे क्षमा कर देंगे ऐसा करके तो व्यक्ति भगवान को और कड़ा दंड देने के लिए प्रेरित कर रहा होता है तो केवल महाकुंभ में स्नान से किसी के पाप कर्म कैसे कट जाएंगे।

हम सभी लोग स्नान- ध्यान, जप - तप ( यानी त्याग ), दान- पुण्य शब्दों का प्रयोग अक्सर साथ साथ पढ़ा सुना होगा अर्थात गंगा स्नान तभी सफल होगा जब व्यक्ति इस प्रक्रिया को पूरा करे तभी पाप कर्म से मुक्ति या आत्मिक शुद्धि संभव हो पाएगी अन्यथा नहीं। जैसे केवल बीज बो देने से फल प्राप्त नहीं होगा उसे खाद पानी देकर पोषित भी करना होता है तभी फल प्राप्त होने की उम्मीद बनती है उसी प्रकार गंगा स्नान के साथ साथ ध्यान भी करना होगा, ध्यान तभी पूरा होगा जब मंत्र जाप हो ( मंत्र जाप की भी अपनी प्रक्रिया है ) मंत्र जाप के साथ त्याग हो यानी नियम संयम के साथ कल्पवास हो और फिर दान यानी सृजदान तब जाकर सबसे अंत में पुण्य प्राप्त होता है और यह प्रक्रिया सुधार की भावना से निरंतर जारी रखना होता तब पाप कर्म पुण्य कर्म के प्रभाव से कमजोर हो जाते है कटते नहीं बल्कि उसका प्रभाव कमजोर हो जाता है तो उसकी पीड़ा महसूस नहीं होती। यह भी इस बात पर निर्भर करेगा की पूरी प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति का भाव कैसा रहा है यदि पूरी प्रक्रिया शुद्ध भाव से संकल्पित होकर किया जाए तो संभव है कि व्यक्ति के पाप कर्मों के प्रभाव से शरीर में विद्यमान आत्मा शुद्ध हो जाएं और वर्तमान जन्मों के पाप कर्म प्रारब्ध कर्मों से न जुडे या हो सकता है मनुष्य मोक्ष को प्राप्त हो जाए।

वैसे पाप कर्मों के प्रभाव से बचने का सबसे सरल और उचित उपाय है पाप कर्मों से बचना और पाप कर्मों से बचने का सबसे सहज तरीका है क्रोध, लोभ और मोह से बचना क्यों कि अत्यधिक पाप मनुष्य से इसी वजह से होता है और इनसे बचने का सबसे अच्छा उपाय है स्नान ध्यान, जप तप ( त्याग ), दान पुण्य, के साथ साथ ज्ञान अर्जन यानी वैदिक ज्ञान से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन, संत संगति इत्यादि। सांसारिक जीवन में यह सब प्रत्येक दिन संभव नहीं हो सकता था इसी लिए ऋषि मुनियों ने वैदिक ज्ञान के आधार पर मनुष्य के उद्धार के लिए वर्ष में एक बार एक महीने के लिए कल्पवास का प्रावधान किया। जिसके लिए त्रिवेणी संगम का स्थल सबसे श्रेष्ठ माना गया इसी लिए प्रत्येक वर्ष प्रयाग में माघ मास में माघ मेला लगता है जिससे सांसारिक जीवन में रहने वाले मनुष्यों को संत संगति में जीवन के उद्धार का मार्ग प्राप्त हो। 

Written By: Ratnesh Mishra 

No comments:

Post a Comment