Monday 24 July 2017

नये राष्ट्रपति का चुनाव जातीय राजनीति का खेल था या आम आदमी से खास आदमी बनाने का सन्देश !!

एक महीने की लम्बी प्रक्रिया के बाद २१ जुलाई को रामनाथ कोविंद जी को देश के नए राष्ट्रपति के रूप में चुन लिया गया जो भारतीय राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में जातीय राजनीति के लिए याद किया जायेगा। इसके साथ ही कोविंद जी के जीवन का यह स्वर्णिम दिन था जब वे कोई चुनाव जीते इसके पहले वे लोकसभा व् विधानसभा का चुनाव भी लड़े  थे लेकिन हार का सामना करना पड़ा था फिरभी दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुके है क्यों कि ये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा मे विश्वास  करते है और इन्होने अपना पूरा जीवन उसके प्रचार प्रसार मे लगाया जो की इनकी राष्ट्रीयता के प्रति प्रगाढ़ भाव को दर्शाता है और दूसरा कारण इनकी जाति।

इस बार का राष्ट्रपति चुनाव इस लिए भी और ज्यादा दिलचस्प था की सत्ता पक्ष ने भावी लोकसभा चुनाव २०१९ को ध्यान में रखते हुए जातिय समीकरण को साधने के लिए पार्टी के सबसे प्रबल और सबसे वरिष्ठ नेता व भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक रहे श्री लालकृष्ण आडवाणी जी को भी दरकिनार करते हुए अनसूचित जाति से श्री कोविंद जी को उम्मीदवार बनाया जबकि पुरे देश को ये उम्मीद था की आडवाणी जी ही देश के अगले राष्ट्रपति होंगे, इसी के साथ २०१७ का राष्ट्रपति चुनाव जातीय राजनीति का मैदान बन गया और विपक्ष को मजबूरन पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को विपक्ष का उम्मीदवार बनाना पड़ा ये जानते हुए भी की बहुमत सत्ता पक्ष के साथ है।
जैसा की हम सब ये जानते है कि संवैधानिक रूप से हमारे देश में राष्ट्रपति पद के चुनाव में जनता का प्रत्यक्ष रूप से कोई योगदान नहीं होता और न ही राष्ट्रपति अपने स्व विवेक से जनता के पक्ष में कोई निर्णय सकता है क्योकि हमारे संविधान का अनुक्षेद ७८ ये कहता है कि राष्ट्रपति अपने जिम्मेदारियों का निर्वहन केंद्रीय मंत्रिमंडल के सलाह से करेंगे। वैसे तो सभी संवैधानिक पदों पर नियुक्ति की जिम्मेदारी राष्ट्रपति की ही है लेकिन वे लगभग सभी नियुक्तियां मंत्रिमंडल की संस्तुति के अनुरूप ही करते है। यदि जनता के सीधे हित की बात करे तो केवल एक ही मुद्दे मृत्युदंड की सजा में माफ़ी के सन्दर्भ में ही राष्ट्रपति मुख्य भूमिका निभाते है लेकिन वे भी तब जब मंत्रिमंडल राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजेंगे तभी। सविंधान के अनुसार केवल एक ही वीटो पावर राष्ट्रपति को प्राप्त है वो अनुक्षेद १११ के तहत राष्ट्रपति मंत्रिमंडल द्वारा संस्तुति किसी भी बिल को अपने पास रोक सकते है लेकिन एक निश्चित समय के बाद उसको मंत्रिमण्डलके पास पुनः विचार करने के लिए भेजना ही पड़ेगा और यदि दुबारा मंत्रिमंडल उसी  बिल को राष्ट्रपति के पास भेजती है तो उन्हें संस्तुति देना ही पड़ेगा।

यँहा समझने वाली बात तो ये है की जब राष्ट्रपति को जनता के हित  में कोई निर्णय लेना का अधिकार ही नहीं है और न ही राष्ट्रपति जनता द्वारा सीधे चुना जाता है तो देश के सर्वोच्च पद पर चुनाव के लिए जातीय राजनीत खेलने का औचित्य क्या था ? इस पर सत्ता पक्ष का कहना है वो तो देश के एक योग्य व् आम नागरिक को देश के सर्वोच्च पद पर बैठकर देश को ये सन्देश देना चाहती है की कोई भी आम आदमी या पार्टी कार्यकर्त्ता हमारे पार्टी में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकता है।  तो प्रश्न ये उठता है की यदि ऐसा ही सोच थी तो किसी अन्य जाती या धर्म के आम आदमी को क्यों नहीं बनाया उम्मीदवार जिनका वोट प्रतिशत काम होता ? यु पी से ही उम्मीदवार क्यों चुना पंडीचेरी गोवा या नार्थ ईस्ट से भी किसी को उम्मीदवार बना सकते थे लेकिन चुकी कोविंद जी उत्तर प्रदेश के मूल नागरिक और वर्तमान में बिहार के राज्ज्यापल थे और अनुसूचित जाती से थे इसलिए उन्हें उम्मीदवार बनाया जिससे दोनों राज्यों के अधिकतर वोटर को सन्देश दे सके। जँहा से लोकसभा के सबसे ज्यादा लगभग १२0  सदस्य सदन का प्रतिनिधित्व करते है और यदि उत्तराखण्ड की ५  और झारखण्ड की १४ लोकसभा सीट को यदि और जोड़ दे तो कुल १३९  सीट पर राजनीतिक सन्देश देने के लिए इस बार राष्ट्पति चुनाव को जातीय रंग में रंग दिया गया। क्यों कि अब तक का ये इतिहास भी रहा है जो पार्टी इन दो राज्यों में सबसे ज्यादा सीट जीतती वही सरकार बनाती है।
 इसका निष्कर्ष  ये  निकलता है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टिया सत्ता पाने के लिए केवल जातीय राजनीत के खेल में उलझी हुयी है सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना उनका प्राथमिकता है न की देश का विकास।  देश का विकाश तो तभी संभव हो पायेगा जब चुनाव पार्टी केंद्रित न होकर क्षेत्र के विकाश पर केंद्रित हो जनता अपने क्षेत्र के विकास के लिए सही व् योग्य प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट करे न कि किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष को ध्यान में रखकर। पार्टिया जातीय राजनीत का खेल इस भी खेलती है क्यों कि जनता भी बहुत हद तक इस खेल को समर्थन करती है जब जनता जाति को महत्व देना काम कर क्षेत्र के विकास को महत्व देना शुरू कर देगी तब राजनीतिक पार्टिया और क्षेत्र का प्रतिनिध दोनो विकाश के प्रति संकल्पित हो जायेंगे। इस लिए खासकर युवाओ को अब पार्टी केंद्रित होकर वोट नहीं देना चाहिए बल्कि प्रतिनिधि व् क्षेत्र के विकास को ध्यान में रखकर प्रतिनिधि चुनना चाहिए। युवाओ को चाहिए की वे #वोट फॉर राइट कैंडिडेट !!के नारे को मजबूती से जनता के बीच में पहुँचाये जिससे आने वाले समय में जनता सही प्रतिनिधि को चुन सके जो किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए बहुत जरुरी हैऔर पार्टी केंद्रित चुनाव व्यवस्था का बहिस्कार कर प्रतिनिधि केंद्रित वोटिंग प्रणाली को प्रचलित करने की मांग तेज करे।

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