Monday 23 November 2020

कर्म फल का एक अद्भुत उदाहरण महाभारत के एक मुख्य पात्र धृतराष्ट्र से मिलता है

महाभारत युद्ध के मुख्य कारणों में से एक कारण धृतराष्ट्र स्वयं थे उनका राज्य के प्रति अत्यधिक मोह व लोभ और अपने पुत्रो की अपेक्षा पांडव पुत्रों का अधिक संस्कारी, सदाचारी व गुणवान होने का प्रभाव उन्हे अंदर से राजपाठ छूटने का भय पैदा करता था जिससे पांडवो के प्रति उनके अदंर ईर्ष्या का भाव बन गया था जो धृतराष्ट्र को व्यवहारिक रूप से अंधा बना दिया था और वे एक राजा का वास्तविक धर्म निभाने मे असफल रहे यह सब कुछ कही न कही उनके पूर्व जन्म के कर्मफल प्रारब्ध के प्रभाव के कारण हो रहा था लेकिन यदि वे चाहते तो अपने वर्तमान जन्म के कर्म, बुद्धि, विवेक, त्याग व सदाचार से उस प्रभाव को सुधार सकते थे परन्तु उनका स्व मन पर दृढ़ संयम न होने से उनका प्रारब्ध उन पर भारी पड़ा और कुरुक्षेत्र के मैदान में उनको अपने सौ पुत्रों का बलिदान देना पड़ा। 
 
धृतराष्ट्र जन्मांध क्यों थे ? इसके बारे में शायद ही कुछ लोगों को पता हो लेकिन पुराणों में उनके पूर्व जन्म की एक कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में एक बार उन्होंने बिना देखे ही जंगल की झाड़ियों में आग लगा दिया था जहाँ एक सर्प, नागिन के १०० अंडेों की देखरेख कर रहा था, जो उसके बच्चो को जन्म देने ही वाली थी किन्तु उसी समय आग लग गई। जब नागिन ने अपनी आँखों के सामने अपनी संतानों की हत्या देखी, तो अत्यंत क्रोधित हो राजा को श्राप दे दिया कि "जिस प्रकार मेरी आँखों के सामने तूने मेरे १०० पुत्रो की हत्या की है, जिनका मुख भी मैं नहीं देख सकी... उसी प्रकार तेरे १०० पुत्र तेरी आँखों के सामने ही मारे जायेंगे और तू उनके मुख कभी नहीं देख सकेगा।
प्रारब्ध का खेल देखिए कि सर्प-श्राप के कारण कर्मफल फलित करने के लिए ईश्वर ने ऐसी रचना रची की धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे पैदा हुए और द्रौपदी जिनका एक दुसरा नाम याग्निक था  क्यो कि उनका जन्म अग्नि वेदी से हुआ था यानि द्रौपदी अग्नि पुत्री थी जो कि महाभारत युद्ध की दुसरी मुख्य पात्र थी जिन्होंने धृतराष्ट्र के लाड़ले पुत्र पर ऐसा व्यंग बाण छोड़ा कि दुर्योधन ने अपने विवेकहीनता की सारी पराकाष्ठा पार कर अपने कुल का ही सर्वनाशक बन गया। यहाँ एक बात समझिये कि पूर्व जन्म में नागिन के पुत्रों के मृत्यु का कारण अग्नि था तो  धृतराष्ट्र के पुत्रों के मृत्यु का कारण भी अग्नि पुत्री द्रौपदी ही बनी और धृतराष्ट के १०० पुत्र उनकी आँखों के सामने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में मारे गये और राजा अपने पुत्रो का मुख कभी नहीं देख सके, विधि का विधान देखिये महाभारत युद्ध के पश्चात् जब धृतराष्ट्र को अपनी गलतियों का एहसास हुआ तो कुछ समय बाद उन्होंने अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करने के लिए अपने कुल गुरू वेद व्यास के आश्रम में जाकर तपस्या करने की इच्छा युधिष्ठिर से व्यक्त किया तब गांधारी व कुंती भी उनके साथ महल छोड़ जंगल में व्यास जी के आश्रम में प्रवास करने लगे। कुछ समय पश्चात एक दिन तीनों ध्यान साधना में लीन थे कि अचानक जंगल में आग लग गयी और तीनों की जीवन लीला आग की तेज लपटों ने समाप्त कर दिया।
कर्मो के बंधनों से मुक्ति असंभव है इसलिए कभी भी किसी की आत्मा को केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए दुःखी पीड़ित न होने दे क्यो कि किसी कमजोर असहाय की अंतरआत्मा की पीड़ा से निकला श्राप निश्चित रूप से फलित होता है। इसका एक और उदाहरण महाभारत कथा से मिलता है युद्ध समाप्ति के पश्चात भगवान श्री कृष्ण पांडवो को लेकर जब धृतराष्ट्र व गांधारी के पास गये तब दोनों अपने सौ पुत्रों के मृत्यु की वजह से बहुत दुःखी थे वार्ता के दौरान पुत्र मोह में दुःखी गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दे दिया कि वासुदेव तुम तो भगवान हो तुम तो सब कुछ जानते थे तो क्यो युद्ध को रोका नहीं तुम भी मेरे पुत्रों के मृत्यु के कारण हो और तुम्हारा परिवार व राजपाठ भी इसी प्रकार नष्ट हो जायेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही भगवान श्री कृष्ण की द्वारिका भी हस्तिनापुर की तरह नष्ट हुईं और श्री कृष्ण की मृत्यु भी बहुत पीड़ादायी थी। 
जय श्री कृष्ण। ।
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Sunday 22 November 2020

मौन मानव जीवन के लिए अध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन का एक महत्वपूर्ण माध्यम है जिससे जीवन की बहुत समस्याओं का समाधान संभव है।

मौन का अर्थ है वाणी की पूर्ण शान्ति यह वह शक्ति है जो आत्मा को परमात्मा से जोडने में सार्थक सिद्ध होती है। जीवन मे मौन का मतलब केवल चुप रहना नहीं है यह एक गहरी साधना का माध्यम है जिससे मनुष्य अपने अंतरआत्मा की धुंधली परतों को हटाकर अपने वास्तविक स्व रूप का परिचय प्राप्त करता है। मौन मनुष्य के भीतर के सौन्दर्य और गहराई को निहारने की एक अनूठी प्रक्रिया है। लेकिन जीवन मे मौन तभी संभव है जब व्यक्ति अपने आपको सांसारिक गतिविधियों से स्वयं को थोड़ा दुर कर अपने वाणी को विराम दे क्यो कि जब व्यक्ति अपनी  वाणी को संयमित करने का अभ्यास करना शुरू करता है तो वाणी धीरे-धीरे अपने आप विराम अवस्था को प्राप्त होने लगती  है तब व्यक्ति आहिस्ता -अहिस्ता अपने अंतरआत्मा के समीप पहुँचने लगता हैं और अपनी वास्तविक पहचान प्राप्त करने मे सक्षम होने लगता हैं क्यो कि मौन में वह शक्ति है जो प्राणों की ऊर्जा के अपव्यय का समापन करती है जिसे अक्सर मनुष्य अनर्गल बोलकर शब्दों के माध्यम से ह्रास करता रहता है। जो मौन धारण करके एकत्रित किया जा सकता है।

यदि लोग जीवन मे थोड़ा मौन धारण करने का प्रयास करे तो  मौन से संसारिक जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याएं कम होने  की संभावनाएं है लेकिन होता यह है कि मनुष अपने भीतर बैठे हर मनोविकार को वाणी के द्वारा बाहर प्रवाहित करता रहता है  जिससे उसके आस पास के नकारात्मक परिवेश का सृजन होता है। इसलिए व्यक्ति को विषम परिस्थितियों में बोलते समय हमेशा सतर्क रहना चाहिए क्यो कि विषम परिस्थिति में जिह्वा जो भाषा उत्पन्न कर सकती है वैसा तलवार के माध्यम से भी होना कठिन है। जिह्वा द्वारा दिया गया घाव कभी नहीं भरता इसलिए हमें हमेशा सकारात्मक सोच व विचार का प्रवाह रखना चाहिए और क्रोध कि स्थिति में हमेशा मौन रहे।  

आध्यत्मिक स्तर पर भी जीवन में ऊँचाइयों को छूने के लिए मौन का सहारा अवश्य लेना पड़ता है इसके लिए महावीर स्वामी ने भी बारह वर्ष तक मौन रखा और गौतम बुद्ध ने भी छ:वर्ष तक, जिसके पश्चात उनकी वाणी दिव्य हो गई। सांसारिक जीवन में साधारण मनुष्य के मन में हर पल विचारों का मेला लगा रहता है, हर क्षण उसके मन में एक नये विचार का उदय होता है। ऐसी स्थिति में मौन का पूरा लाभ तभी लिया जा सकता जब व्यक्ति बाहर के साथ-साथ अन्दर से मौन सुनिश्चित कर पाये और अंदर से मौन सुनिश्चित करने के लिए व्यक्ति को विचारों को भी संयमित करना होगा जो केवल ध्यान साधना से ही संभव है वैसे भी मौन और ध्यान दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसके लिये व्यक्ति को संसारिक कौतूहल व लोगों के भीड से दूर प्रकृति के बीच में जाकर प्रयास करना चाहिए क्योंकि प्रकृति  हर समय संसार को एक नया सन्देश देती है उसके कण कण में एक दिव्य संगीत की धुन सुनाई देती है जिससे व्यक्ति भीतर से धीरे धीरे शान्त होते जाता है और प्रकृति के हर शब्द को अपने भीतर अनुभव करने लगता हैँ। भ्रमरों के गुंजार की अनन्त ध्वनि व्यक्ति को सुनाई देने लगती है डालों पर बैठे पक्षियों के चहचहाने जैसे भैरवी स्वरों का आभास व्यक्ति को होने लगता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन मे आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को प्रकृति को समझना होगा जो कि अपने भीतर के मौन को जाग्रत करने से ही संभव है। 

मौन वास्तव में मनुष्य जीवन की वह संजीवनी शक्ति है जिससे व्यक्ति के प्राणों की ऊर्जा का पुन:विकास एवं उत्थान होता है। जीवन मे नित्यप्रति तीन या चार घंटे का मौन रखना लाभदायक होता है। मौन के निरन्तर अभ्यास से व्यक्ति की वाणी पवित्र होने लगती है और उसमें सत्यता जाग्रत होती है। ऐसा व्यक्ति वाणी से जो भी बोलता है वह सच होने लगता है। उसके व्यक्तित्व में गंभीरता आने लगती है और मन एकाग्रता की ओर बढ़ता है।  
मौन जब पूर्ण रूप से सिद्ध होकर लयबद्ध हो जाता है तब ऐसा महसूस होता है जैसे जीवन मे कोई विचार ही नहीं है और मन आत्मा में विलीन हो एक शान्त सागर जैसा प्रतीत होता है जहाँ  कोई लहरे नहीं उठती तब व्यक्ति एक रस में बहता चला जाता है। मौन में लहरों की भांति उठने वाले विचार विलीन हो जाते हैं। व्यक्ति को अहसास होता है कि जो 'मै' था वह केवल जड़ की अनुभूति थी। अब मै एक चेतना का सागर हूँ। परिपूर्ण मौन शान्ति के जल में मन की आहूति है।

मौन शान्ति का सन्देश है। यह स्वयं को ईश्वर से जुडने का सबसे सरल उपाय है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यस्त दिनचर्या में से कुछ क्षण निकालकर संकल्पबद्ध होकर प्रतिदिन मौन साधना में उतरकर परम शान्ति का अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। यह मनुष्य जीवन के लिए एक श्रेष्ठ तप है जो हमारे ऋषि-मुनियों की अमूल्य धरोहर है। 
                           

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घर में बहू चुनते समय संस्कार को वरीयता दे ना कि दहेज़

एक ऐसा सच जिसे बहुत कम लोग ही आज तक समझ पाये है कि - बुढापे की लाठी-"बहु" होती है न कि "बेटा"
हम लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है। इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापा अच्छे से कट जाए परन्तु ये बात केवल इतना ही सच है कि बेटे ही माध्यम होते है बहु को घर लाने के लिए बुढापे की लाठी तो बहू ही बनती है। बहु के आ जाने के बाद बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे में डाल देता है और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी, जी हाँ ये लगभग सत्य है कि वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर या माॅ-बाप अपना जीवन व्यतीत करते हैं।एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती कि वे कब और कैसी चाय पीते है, उनके लिए क्या खाना बनाना है, शाम में उन्हे नाश्ता क्या देना है, रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है ये बहु को ही पता होता है न कि बेटे को। अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो अक्सर पूरे मन या बेमन से कहे बहु ही देखभाल करती है, अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चली जाएं, बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो। वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे उन्हे कोई पूछेगा नही, उनका अपना बेटा भी नही क्योंकि बेटे को फुर्सत नही है और अगर बेटे को फुरसत मिल भी जाये तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है क्योंकि बेटो के तो केवल कुछ निश्चित सवाल है जैसे कि माँ-बाबूजी खाना खाएं,चाय नाश्ता किये या बीमार होने पर हास्पीटल तक छोड़ने तक ही वे अपनी जिम्मेदारी समझते है या ये कहे कि इससे ज्यादा उनके पास समय ही नही है लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं और ऐसा तभी संभव है जब वे उनके पास बैठे बाते करे लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज मे माता पिता भी अपने बच्चों के साथ कभी इतना समय नही दिये होते है कि बच्चे उनके पास बैठकर कुछ समय व्यतीत करे या बात चीत करे जिससे उन्हे अपने बूढ़े माता पिता की दिनचर्या पता रहे ऐसा इसलिए भी है कि बहुत से माता पिता अपने बच्चों से खुलना पसंद नहीं करते है  लगभग हर घर की यही कहानी है। हम सब अपने आस-पास अक्सर देखते सुनते होंगे कि बहुएं या बेटियां ही अंत समय मे अपनी सास ससुर की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी बिल्कुल एक बच्चे की तरह, जैसे बच्चे सारे काम बिस्तर पर करते हैं ठीक उसी तरह उसकी सास भी करती थी और बेचारी बहु उसको साफ करती थी, बेटा तो बचकर निकल जाता था किसी न किसी बहाने। ऐसे बहुत से बहुओ के उदाहरण हम सबको मिल जायेंगे। मैंने अपनी माँ व चाची को दादी की ऐसे ही सेवा करते देखा है वो बोलेंगी गुस्सा भी करेगी लेकिन आवश्यकता अनुरूप देखभाल भी करेगी। आपलोग में से ही कईयों ने अपने घर परिवार व समाज में बहुत सी बहुओं को अपनी सास-ससुर की ऐसी सेवा करते देखा होगा या कर रही होगी। कभी -कभी ऐसा होता है कि बेटा संसार छोड़ चला जाता है तब बहु ही होती है जो उसके माँ-बाप की सेवा करती है, ज़रूरत पड़ने पर नौकरी करती है लेकिन अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती ही बुढ़ापे की असली लाठी लेकिन अफसोस "बहु" की त्याग और सेवा उन्हे भी नही दिखती जिसके लिये सारा दिन वो दौड़-भाग करती रहती है। बहु के बाद यदि कोई और सास ससुर की सेवा करता तो वे पोते -पोती ही करते है लेकिन ये तभी संभव है जब बहू संस्कारी हो और सास ससुर ने उन्हें अपने घर लाने के बाद अच्छा सम्मान दिया हो क्यो कि घर का कोई नया सदस्य चाहे वो बहू हो या पोता पोती संस्कार तो अपने बड़ो से ही सीखते है।
इस लिए मेरा एक विनम्र निवेदन है आप सब लोगों से की बहू को #दहेज की तराजू में तौल कर मत लाइये बल्कि संस्कार शिक्षा व व्यवहार के तराजू पर तौल के लाइये क्योंकि बुढापे की लाठी बहू व उसके बच्चे ही बनेंगे न कि बेटा और भ्रूण हत्या का विचार भी मन से निकालिए खुशी मन से बेटियों का आगमन, जीवन मे ईश्वर का आशीर्वाद समझकर करें क्यो कि बेटियों का महत्व केवल बहू के रूप में लाने तक ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्व है इस सृष्टि की संरचना को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए।
आप सबसे  प्रार्थना है कि मेरे इस विचार को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं शायद कुछ लोग इस सत्यता को समझ सके और #दहेज रूपी दानव का अपने जीवन परिवार व समाज से बहिष्कार करने मे आगे आए।


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Sunday 26 April 2020

सनातन धर्म में अक्षय तृतीया को सर्व श्रेष्ठ तिथि क्यो माना जाता है ?

जो कभी क्षय न हो उसे अक्षय कहते हैं वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया कहते हैं। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं उनका अक्षय फल मिलता है इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। स्कंदपुराण और भविष्य पुराण में यह उल्लेख कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी अक्षय तृतीया की इस तिथि को परम पुण्यमय बताया है। अक्षय तृतीया को युगादि तिथि भी कहा जाता है। युगादि का शाब्दिक अर्थ है युग आदि अर्थात एक युग का आरंभ। इस दिन सूर्य पूर्ण बली होते है इसीलिए इस दिन सूर्य प्रधान त्रेता युग का आरंभ हुआ।
अक्षय तृतीया को विशेष तिथि इस लिए भी माना जाता है कि आज के दिन से ही महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना आरंभ की थी और महाभारत के युधिष्ठिर को अक्षय पात्र की प्राप्ति भी इसी दिन हुई थी जिसके बारे में यह किंवदंती प्रचलित है कि उसमें रखा गया भोजन समाप्त नहीं होता था। भगवान शिव ने आज के दिन ही माॅ लक्ष्मी एवं कुबेर को धन का संरक्षक नियुक्त किया था। इसीलिए इस दिन सोना, चांदी और अन्य मूल्यवान वस्तुएं खरीदने का विशेष महत्व है।

पुराणो मे ऐसा उल्लेख है कि आज के दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य किए जा सकते हैं और इस दिन गंगा स्नान करने से व भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है और यदि यह तिथि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल अत्यधिक बढ़ जाता हैं। आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं। अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है।

आज के दिन ही ऋषि जमादग्नि तथा माँ रेणुका के पुत्र भगवान विष्णु के छठें अवतार परशुराम जी का भी अवतार हुआ था जो आज भी अजर अमर है। इनके अलावा छः और लोगों को अमरत्व का वरदान है
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांश्च विभीषण:,कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।।
भगवान शिव के परम भक्त श्री परशुराम धर्म न्याय व वीरता के साक्षात उदाहरण है परशुराम जी की त्रेता युग के दौरान सीता के स्वयंवर में भगवान राम द्वारा शिवजी का पिनाक धनुष तोड़ने पर क्रोधित होने का उल्लेख मिलता है और दापर युग महाभारत काल मे उन्होंने गंगा पुत्र भीष्म और कर्ण को धनुर्विद्या प्रदान किया।

श्रीबांकेबिहारी जी के चरणों के दर्शन भी केवल अक्षय तृतीया के दिन ही मिलते है। वृंदावन के मंदिरों में ठाकुर जी का शृंगार चंदन से किया जाता है ताकि प्रभु को चंदन से शीतलता प्राप्त हो सके और बाद में इसी चंदन की गोलियां बनाकर भक्तों के बीच प्रसाद रूप में वितरित कर दी जाती हैं। श्री बद्रीनारायण की दर्शन यात्रा का शुभारंभ भी अक्षय तृतीया के दिन से ही होता है जो प्रमुख चार धामों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि नर-नारायण का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान कृष्ण एवं सुदामा का पुनः मिलाप हुआ था।


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Sunday 12 April 2020

मोदी जी के नेतृत्व में भारत का विश्वगुरु बनने की ओर बड़ता कदम।।

आज जब पुरे विश्व में कोरोना वायरस जैसी एक सूछ्म से परजीवी से लड़ते हुए लोग दम तोड़ रहे है । विश्व के सारे वैज्ञानिको व अनुसंधान केन्द्रो को इसका कोई उपयुक्त इलाज नही समझ आ रहा है, न कोई एटम बम काम आ रहे न पेट्रो रिफाइनारी ? नासा के सारे अंतरिक्षीय खोजो का औचित्य नगण्य हो गया है, सारा भौगोलिक व आर्थिक विकास एक छोटे से जीवाणु का सामना नहीं कर पा रहा ? एक छोटे से जीव ने आज लगभग पूरे विश्व को घरो में कैद कर दिया है। 
मध्य युग में पुरे यूरोप पर राज करने वाला इटली लगभग नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुका है यहाँ लगभग 20 हजार से अधिक लोग परलोक पहुंच गए हैं लाखों लोग अस्पताल में जीवन और मौत के बीच की सांसें ले रहे है जिन लोगों ने परिवार के सारे सदस्यो को इस महामारी में खो दिया वे लोग अपने जीवन के कमाया सारे धन को सड़को पर लुटा खुद आत्म हत्या कर रहे है। स्पेन, फांस, बेल्जियम, जर्मनी, डेनमार्क, लगभग पूरे यूरोप में त्राहीमाम मचा है अर्थव्यवस्था लगभग ध्वस्त हो चुकी है। कभी पूरे मध्य पूर्व पर अपना आधिपत्य रखने वाला ओस्मानिया साम्राज्य ( ईरान व टर्की ) को अब कोई युक्ति नही सुझ रही हैं 3500 से अधिक लोगों की जीवन लीला समाप्त कर दिया एक छोटे से जीवाणु ने। ब्रिटिश साम्राज्य जिसका आधिपत्य एक समय विश्व के 56 देशो तक फैला था उसके वारिश आज स्वयं बर्मिंघम पैलेस में कैद होने को मजबूर हैं। रूस जैसे वृहद क्षेत्रफल वाला देश जो स्वयं को आधुनिक युग की सबसे बड़ी शक्ति समझते थे आज अपना सारे बॉर्डर सील कर दिया हैं। अमेरिका जिसके एक इशारे पर दुनिया के नक़्शे बदल जाते हैं जो पूरी दुनिया में अपने को अघोषित चौधरी समझता है यहाँ भी केवल एक महीने में 25 हजार से अधिक लोग दुनिया छोड़ चुके है और 3.5 लाख लोग जीवन की अंतिम सांसे गिन रहे हैं। जो आने वाले समय में पूरे विश्व को अपने कब्जे में करने के सपने संजोये है, वो चीन आज दुनिया के साथ विश्वासघात कर मुँह छिपता फिर रहा है।
आज विश्व के लगभग सौ से अधिक देश लाकडाउन की प्रकिया से गुजर रहे हैं सभी सामाजिक आर्थिक गतिविधिया बंद है। मेनचेस्टर की औध्योगिक क्रांति और हारवर्ड की इकोनॉमिक्स सोच #कोरोना के कहर में पूर्ण रूप से शिथिल हो गयी है। आज पूरी दुनिया आशा भरी नज़रो से देख रहे हैं उस भारत की ओर, जिसका सदियों से यही सारे देश अपमान करते रहे, लूटते रहे है लेकिन अब सबको लग रह है कि वर्तमान आपदा से लड़ने की राह विश्व को भारत ही दिखा सकता है ? आज दुनिया को हाइड्रोक्लोरोफ्लेक्सिन जैसी दवा कोरोना वायरस के बीमारी से बचाने में रामबाण का काम कर रही है उसके लिए पुरा विश्व भारत पर निर्भर है ये दवा पाकर ब्राजील के राष्ट्रपति ने मोदी जी को धन्यवाद प्रेषित करते हुए संजीवनी बूटी की संज्ञा दी। इससे पता चलता है कि अब भारतीय वैदिक सांस्कृतिक जीवन शैली की महत्ता का एहसास पूरे विश्व को हो चुका है जहाँ सांसारिक वैभव को त्यागकर आंतरिक शांति की खोज करने वाले हजारों ॠषि मुनियों ने आयुर्वेद,ध्यान, योग, हवन व यज्ञ जैसे तमाम ऐसे युक्तियो का विकास सदियों पहले कर दिया था जो सुरक्षित स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।
वैसे मुझे लगता है कि कोरोना वायरस जैसी महामारी का अभी केवल आरम्भ हुआ है जैसे जैसे ग्लोवल वार्मिंग बढ़ेगी, ग्लेशियरो की बर्फ पिघलेगी और आज़ाद होंगे लाखो वर्षो से बर्फ की चादर में कैद दानवीय विषाणु, जिनका न हमे परिचय है और न लड़ने की कोई तैयारी। ये कोरोना तो बस चेतावनी है, उस आने वाली विपदा की, जिसे हम मनुष्यो ने जन्म दिया है यह एक ऐसा युद्ध जिसमे हमें हरने की सम्भावना पूरी है यदि हम अब भी पर्यावरण से छेड़छाड़ करना बंद नही किये। वैसे सूछ्म एवं परजीवियों से मनुष्य का युद्ध नया नहीं है, ये तो सृष्टि के आरम्भ से अनवरत चल रहा है और सदैव चलता रहेगा जिससे लड़ने के लिए भारत ने हर हथियार सदियों पहले खोज भी लिया था, मगर अहंकार, लालच व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की हठ धर्मिता वाली पश्चिमी व यूरोपीय सोच ने सब नष्ट कर दिया लेकिन आज भी भारत अपनी समृद्धिशाली वैदिक संस्कृति व व्यवस्था के उपयोग से विश्व के भीषणतम महामारी से लड़ने व संसार को दिशा देने मे सक्षम है और मार्ग निकलेगा उन्ही नष्ट हुए हवन कुंडो से, जिन्हे कभी पैरों की ठोकर से तोडा गया था, उसी नीम और पीपल की छाँव में उम्मीद की किरणें दिखाई दे रही है, जिसका कभी उपहास किया गया था, उसी गाय की महिमा को स्वीकार करना पड़ेगा, जिसे यही यूरोपीय व पश्चिम देशो ने स्वाद के कारण अपना मुख्य भोजन बना लिया। उन्ही मंदिरो के घंटनाद की परंपरा को अपनाना पड़ेगा जिन मदिंरो को तोडा गया था, उन्ही वेदो मंत्रों को पढ़ना पड़ेगा जिन्हे कभी अट्टहास करते हुए तिरस्कृत किया था, उसी चन्दन तुलसी को मष्तक व गले पर धारण करना पड़ रहा है, जिसके लिए कभी हमारे मष्तक धड़ से अलग किये गए थे।
ये प्रकृति का न्याय है और विश्व को स्वीकारना होगा। युगों युगों से जब भारतीय सनातन धर्म एक दूसरे को हाथ जोड़ कर नमस्ते करने, हाथ पैर धोकर घर मे घुसने व मानवता के उच्चतम आदर्श को मानते हुए जानवरों, पेड़ों और जंगलों की पूजा करने, योग प्रणायाम व शाकाहारी भोजन अपनाने पर जोर दे रहा था, श्मशान और अस्पताल से आकर स्नान करने की परंपरा का पालन करने को कह रहा था तब पूरी दुनिया हंसती थी लेकिन अब? अब कोई नही हंस रहा, बल्कि कोरोना वायरस के प्रभाव में आज पुरा विश्व भारतीय संस्कार को अपना रहा हैं। पुुुरी दुुनिया आज नमस्कार की परंपरा का पालन कर रहा है, अमेरिका जैसा समृृद्धि व शक्तिशाली देश पीपल वृक्ष व तुलसी के पौधे को अच्छे पर्यावरण के लिए सर्वश्रेष्ठ मान रही है चीन दाह संस्कार की व्यवस्था को अपनाने के लिए कह रहा है, मलेशिया के एक वैज्ञानिक ने वहां के राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र में लेख लिखकर लोगों से शाकाहारी खानपान को अपनाने की अपील किया, इंग्लैंड, अमेरिका सहित कई यूरोपीय देशों में ससंद मे वैदिक मंत्रोचचारण कराया गया, जापान में महामृत्युंजय मंत्र का सामूहिक जाप आयोजित किया गया। स्पेन के राष्ट्रीय रेडियो चैनल पर प्रतिदिन सुबह वैदिक मंत्रों का प्रसारण करवाया जा रहा है।
आज प्रकृति, भारतीय संस्कृति सभ्यता का मजाक उड़ाने वालो को सीख दे रहा है कि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं और कर्म फल भोगना ही पड़ता है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धर्म का उपदेश देते समय कहा कि वत्स पुरा ब्रहमांड मेरे मे ही समाहित है सब कुछ मै ही हूँ और संसार में घटित होने वाली सभी घटनाएं मेरे इच्छा के अनुरूप ही होती है फिर भी मेरा वस तो केवल कर्मफल तक ही निहित है मनुष्य तो सुख दुःख अपने कर्मो के फलस्वरूप भोगता है। भगवद्गीता में उल्लेखित यह सम्वाद आज रूस जैसे बड़े ताकतवर देश में प्राइमरी स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल है। सच ही कहा गया है सनातन धर्म केवल एक धम॔ ही नहीं अपितु एक जीवन पद्धति है इसको दैनिक जीवन में अपनाने वालों को सामान्य विषाणु प्रभावित नहीं कर पाते हैं। 
दुनिया को ये मानना ही होगा कि अगर वास्तव मे समृद्धिशाली जीवन जीना है, तो ॠगवेद यजुर्वेद अथर्वेद व सामवेद, उपनिषद, भागवगीता, रामायण का गहन अध्ययन करना ही होगा, तक्षशिला नालंद की मिट्टी से क्षमा याचना करनी ही होगी और
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् ।। की उच्चकोटि की सोच व भारतीय व्यवस्था को अपनाना ही होगा।।


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Tuesday 24 March 2020

जब भारतीय परिवारों की हजारों साल पुरानी शंख व घंट ध्वनि की दैनिक परंपरा जीवंत हो गयी

भारत देवताओं व ॠषि-मुनियों की भूमि है जहाँ वैदिक मंत्रोंच्चारण व यज्ञो के माध्यम से असंभव कार्यों व बीमारीयो का समाधान किया जाता रहा है, यहाँ शंख व घंट ध्वनि की परंपरा दैनिक जीवन में प्रातः व सांध्य वंदन के समय युगों पुरानी है जिसे राक्षसी प्रवृत्ति के विदेशी आक्रमणकारियों ने हजारो बार आक्रमण कर वैदिक साहित्य व संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास किया लेकिन भारतीय ब्रम्हषियो की संतानों में वैदिक संस्कृति इस तरह समाहित है कि वे जड़ से समाप्त नहीं कर पाये। यही कारण है कि आज भी हम बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान वैदिक मंत्रों ऋषि मुनियों व पूर्वजों की कृपा से ढूंढ लेते है आज जब पुरा विश्व कोरोना वायरस जैसी महामारी से प्रभावित है ऐसे में एक बार फिर से हजारों साल पुरानी शंख व घंट ध्वनि परंपरा का सहारा लेकर विषाणुओं को हवा में ही नष्ट करने का सफल प्रयास हम सबने मिलकर किया है।
हाल में ही आयोजित ऐतिहासिक जनता कर्फ्यू  का लगभग 100% सफल होना यह सिद्ध करता है कि भारतीय संस्कृति की जड़ें इतनी मजबूत है कि भारतवासी मानवता व वैदिक परंपरा की रक्षा के लिए कभी भी एक आवाज पर संगठित हो सकते है सिर्फ आवाज देने वाले का उद्देश्य सही होना चाहिए। लोग इसको अलग-अलग तरह से परिभाषित कर रहे हैं कुछ लोगो का कहना है कि, ये जनता का सुरक्षित जीवन के प्रति डर या भारतीय सामाज की सवेंदनशील सोच या शायद देश प्रेम की वजह से संभव हुआ, लोग चाहे जो भी कहे लेकिन जिस तरह से रविवार 22 माच॔ की शाम को ठीक 5 बजे देश के हर गाँव, शहर, गली-मोहल्ले, में अमीर से अमीर जैसे देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी से लेकर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन तक व गरीब से गरीब परिवार के प्रत्येक व्यक्तियों का एक साथ खड़े होकर शंखनाद नाद करना, तालियों की गडगडाहट व घंटो की आवाज, महिलाओं बुजुर्गों व बच्चों की उत्साहित भागीदारी ने ये सिद्ध कर दिया कि भारतीयों का युगों पुरानी वैदिक व्यवस्था पर आज भी अटूट विश्वास है। जिस का नजारा आजादी के बाद पहली बार देखने को मिला, जब देश का हर घर मंदिर प्रतीत हो रहा था। जो भारतीय संस्कृति सभ्यता को जीवंत बनाए रखने का मोदी जी का एक अद्भुत प्रयोग और अगली पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का एक बड़ा सदेंश भी था।
कोरोना महामारी के वजह से ही सही लेकिन देश की जनता ने पूरे विश्व को भारत की संस्कृति, संवेदनशीलता व जिम्मेदारी के भाव, लोकतांत्रिक सोच और राष्ट्र के प्रति नागरिक सम्मान के भाव का जो सदेंश जनता कर्फ्यू को सफल बनाकर दिया है ये अतुलनीय है। यह विजय नाद देश को कोरोना वायरस जैसे  दानव से आगे लड़ने में संयम प्रदान करेगा और भारत के नागरिक सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नवदुर्गा की कृपा से कोरोना महामारी को परास्त करेंगे। देश का प्रत्येक नागरिक प्रधानमंत्री जी का हृदय से आभारी है जिन्होंने कोरोना वायरस के खौफ के इस माहौल में भी बिना त्यौहार के, त्योहार जैसी स्थिति पैदा कर लोगों को भयमुक्त बना दिया तथा पूरे देश में एक साथ एक नियत समय पर शंखनाद करवाकर भारतीय संस्कृति सभ्यता को गौरवान्वित कर दिया। अब जनता साहस व विश्वास के साथ इस महामारी का मुकाबला सावधानी व संयम से करने के तैयार हो गयी है।
जय हिंद जय भारत। । 


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Saturday 21 March 2020

कहीं कोरोना वायरस का कहर मानवता की रक्षा व प्रकृति के संरक्षण का सदेंश तो नहीं

प्रकृति से श्रेष्ठ और बलवान इस ब्रहमांड में कुछ भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कोरोना वायरस का कहर जिसके वजह से आज विश्व के 150 से अधिक देश प्रभावित है।  निस्संदेह यह समस्या मानव जनित है और इसकि भयावहता के माध्यम से प्रकृति ये सदेंश दे रहा है कि मनुष्य जन्म लेकर मानवता के परिचायक बनो ना कि दानवता का। आज हम सबको प्रकृति के इस प्रकोप को भूत, वर्तमान और भविष्य के कसौटी पर रखकर जीवन को समझने का प्रयास करना चाहिए।  सुनामी, भूकंप और कोरोना वायरस जैसी आपदाएं समय-समय पर कुछ सदेंश लेकर आती है मानव समाज को जागृत करने के लिए । यदि हम समझने का प्रयास करे तो देखे कैसे एक वायरस ने बहुत कुछ सिखा दिया हम सबको। जैसेकि आज राष्ट्रों की सीमाएं टूट गईं आतंकी बंदूकें खामोश हैं, अमीर - गरीब का भेद मिट गया। आलिंगन,चुम्बन का स्थान मर्यादित आचरण ने ले लिया। क्लब,स्टेडियम, पब, मॉल, होटल,बाज़ार के ऊपर अस्पताल की महत्ता स्थापित हो गई। अर्थशास्त्र के ऊपर चिकित्साशास्त्र स्थापित हो गया। एक सुई, एक थर्मामीटर, गन,मिसाइल टैंक से अधिक महत्वपूर्ण हो गया।
मंदिर चर्च दरगाह मस्जिद बंद कर दिया गया है सारे आडंबर, दर्शन -प्रदर्शन सब बंद । मांसाहारी भोजन बंद शाकाहारी जीवन शैली को लोग अपनाने को आतुर है। पुरा विश्व आज भारतीय संस्कृति व परंपरा को अपनाने को तैयार हैं।धर्म पर अध्यात्म स्थापित हो गया। भीड़ में खोया आदमी परिवार में लौट आया, पर संपर्क दुःखदायी और निज संपर्क सुखदाई हो गया है। चहुँ ओर केवल कोरोना वायरस से जीवन रक्षा कैसे की जाएँ बस यही चर्चा चल रही है।
कोरोना वायरस का अद्भुत असर जरा देखिये आज एक बार फिर से बुजुर्गों व अनुभवी लोगों की प्रचलित लोकोकति "जो होता है अच्छा होता है" को चरितार्थ कर दिया। कम से कम इसी बहाने ही सही लोग बहुत कुछ समझने सोचने व जीवन शैली में बदलाल लाने का प्रयास तो करेंगे। आज ये वायरस प्रकोप हमे यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि मानवता से बड़ा कोई धर्म संप्रदाय या देश नहीं होता।
इस लिए जीवन के प्रति दृढ़संकल्प और संयमित रहते हुए सदैव मानवता व प्रकृति के रक्षा संरक्षण के लिए तत्पर रहे । जीवन में सावधानी और सतर्कता रखें,लपारवाह न बनें। यही कोरोना का संदेश है।

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