Monday 23 November 2020

कर्म फल का एक अद्भुत उदाहरण महाभारत के एक मुख्य पात्र धृतराष्ट्र से मिलता है

महाभारत युद्ध के मुख्य कारणों में से एक कारण धृतराष्ट्र स्वयं थे उनका राज्य के प्रति अत्यधिक मोह व लोभ और अपने पुत्रो की अपेक्षा पांडव पुत्रों का अधिक संस्कारी, सदाचारी व गुणवान होने का प्रभाव उन्हे अंदर से राजपाठ छूटने का भय पैदा करता था जिससे पांडवो के प्रति उनके अदंर ईर्ष्या का भाव बन गया था जो धृतराष्ट्र को व्यवहारिक रूप से अंधा बना दिया था और वे एक राजा का वास्तविक धर्म निभाने मे असफल रहे यह सब कुछ कही न कही उनके पूर्व जन्म के कर्मफल प्रारब्ध के प्रभाव के कारण हो रहा था लेकिन यदि वे चाहते तो अपने वर्तमान जन्म के कर्म, बुद्धि, विवेक, त्याग व सदाचार से उस प्रभाव को सुधार सकते थे परन्तु उनका स्व मन पर दृढ़ संयम न होने से उनका प्रारब्ध उन पर भारी पड़ा और कुरुक्षेत्र के मैदान में उनको अपने सौ पुत्रों का बलिदान देना पड़ा। 
 
धृतराष्ट्र जन्मांध क्यों थे ? इसके बारे में शायद ही कुछ लोगों को पता हो लेकिन पुराणों में उनके पूर्व जन्म की एक कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में एक बार उन्होंने बिना देखे ही जंगल की झाड़ियों में आग लगा दिया था जहाँ एक सर्प, नागिन के १०० अंडेों की देखरेख कर रहा था, जो उसके बच्चो को जन्म देने ही वाली थी किन्तु उसी समय आग लग गई। जब नागिन ने अपनी आँखों के सामने अपनी संतानों की हत्या देखी, तो अत्यंत क्रोधित हो राजा को श्राप दे दिया कि "जिस प्रकार मेरी आँखों के सामने तूने मेरे १०० पुत्रो की हत्या की है, जिनका मुख भी मैं नहीं देख सकी... उसी प्रकार तेरे १०० पुत्र तेरी आँखों के सामने ही मारे जायेंगे और तू उनके मुख कभी नहीं देख सकेगा।
प्रारब्ध का खेल देखिए कि सर्प-श्राप के कारण कर्मफल फलित करने के लिए ईश्वर ने ऐसी रचना रची की धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे पैदा हुए और द्रौपदी जिनका एक दुसरा नाम याग्निक था  क्यो कि उनका जन्म अग्नि वेदी से हुआ था यानि द्रौपदी अग्नि पुत्री थी जो कि महाभारत युद्ध की दुसरी मुख्य पात्र थी जिन्होंने धृतराष्ट्र के लाड़ले पुत्र पर ऐसा व्यंग बाण छोड़ा कि दुर्योधन ने अपने विवेकहीनता की सारी पराकाष्ठा पार कर अपने कुल का ही सर्वनाशक बन गया। यहाँ एक बात समझिये कि पूर्व जन्म में नागिन के पुत्रों के मृत्यु का कारण अग्नि था तो  धृतराष्ट्र के पुत्रों के मृत्यु का कारण भी अग्नि पुत्री द्रौपदी ही बनी और धृतराष्ट के १०० पुत्र उनकी आँखों के सामने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में मारे गये और राजा अपने पुत्रो का मुख कभी नहीं देख सके, विधि का विधान देखिये महाभारत युद्ध के पश्चात् जब धृतराष्ट्र को अपनी गलतियों का एहसास हुआ तो कुछ समय बाद उन्होंने अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करने के लिए अपने कुल गुरू वेद व्यास के आश्रम में जाकर तपस्या करने की इच्छा युधिष्ठिर से व्यक्त किया तब गांधारी व कुंती भी उनके साथ महल छोड़ जंगल में व्यास जी के आश्रम में प्रवास करने लगे। कुछ समय पश्चात एक दिन तीनों ध्यान साधना में लीन थे कि अचानक जंगल में आग लग गयी और तीनों की जीवन लीला आग की तेज लपटों ने समाप्त कर दिया।
कर्मो के बंधनों से मुक्ति असंभव है इसलिए कभी भी किसी की आत्मा को केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए दुःखी पीड़ित न होने दे क्यो कि किसी कमजोर असहाय की अंतरआत्मा की पीड़ा से निकला श्राप निश्चित रूप से फलित होता है। इसका एक और उदाहरण महाभारत कथा से मिलता है युद्ध समाप्ति के पश्चात भगवान श्री कृष्ण पांडवो को लेकर जब धृतराष्ट्र व गांधारी के पास गये तब दोनों अपने सौ पुत्रों के मृत्यु की वजह से बहुत दुःखी थे वार्ता के दौरान पुत्र मोह में दुःखी गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दे दिया कि वासुदेव तुम तो भगवान हो तुम तो सब कुछ जानते थे तो क्यो युद्ध को रोका नहीं तुम भी मेरे पुत्रों के मृत्यु के कारण हो और तुम्हारा परिवार व राजपाठ भी इसी प्रकार नष्ट हो जायेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही भगवान श्री कृष्ण की द्वारिका भी हस्तिनापुर की तरह नष्ट हुईं और श्री कृष्ण की मृत्यु भी बहुत पीड़ादायी थी। 
जय श्री कृष्ण। ।
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Sunday 22 November 2020

मौन मानव जीवन के लिए अध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन का एक महत्वपूर्ण माध्यम है जिससे जीवन की बहुत समस्याओं का समाधान संभव है।

मौन का अर्थ है वाणी की पूर्ण शान्ति यह वह शक्ति है जो आत्मा को परमात्मा से जोडने में सार्थक सिद्ध होती है। जीवन मे मौन का मतलब केवल चुप रहना नहीं है यह एक गहरी साधना का माध्यम है जिससे मनुष्य अपने अंतरआत्मा की धुंधली परतों को हटाकर अपने वास्तविक स्व रूप का परिचय प्राप्त करता है। मौन मनुष्य के भीतर के सौन्दर्य और गहराई को निहारने की एक अनूठी प्रक्रिया है। लेकिन जीवन मे मौन तभी संभव है जब व्यक्ति अपने आपको सांसारिक गतिविधियों से स्वयं को थोड़ा दुर कर अपने वाणी को विराम दे क्यो कि जब व्यक्ति अपनी  वाणी को संयमित करने का अभ्यास करना शुरू करता है तो वाणी धीरे-धीरे अपने आप विराम अवस्था को प्राप्त होने लगती  है तब व्यक्ति आहिस्ता -अहिस्ता अपने अंतरआत्मा के समीप पहुँचने लगता हैं और अपनी वास्तविक पहचान प्राप्त करने मे सक्षम होने लगता हैं क्यो कि मौन में वह शक्ति है जो प्राणों की ऊर्जा के अपव्यय का समापन करती है जिसे अक्सर मनुष्य अनर्गल बोलकर शब्दों के माध्यम से ह्रास करता रहता है। जो मौन धारण करके एकत्रित किया जा सकता है।

यदि लोग जीवन मे थोड़ा मौन धारण करने का प्रयास करे तो  मौन से संसारिक जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याएं कम होने  की संभावनाएं है लेकिन होता यह है कि मनुष अपने भीतर बैठे हर मनोविकार को वाणी के द्वारा बाहर प्रवाहित करता रहता है  जिससे उसके आस पास के नकारात्मक परिवेश का सृजन होता है। इसलिए व्यक्ति को विषम परिस्थितियों में बोलते समय हमेशा सतर्क रहना चाहिए क्यो कि विषम परिस्थिति में जिह्वा जो भाषा उत्पन्न कर सकती है वैसा तलवार के माध्यम से भी होना कठिन है। जिह्वा द्वारा दिया गया घाव कभी नहीं भरता इसलिए हमें हमेशा सकारात्मक सोच व विचार का प्रवाह रखना चाहिए और क्रोध कि स्थिति में हमेशा मौन रहे।  

आध्यत्मिक स्तर पर भी जीवन में ऊँचाइयों को छूने के लिए मौन का सहारा अवश्य लेना पड़ता है इसके लिए महावीर स्वामी ने भी बारह वर्ष तक मौन रखा और गौतम बुद्ध ने भी छ:वर्ष तक, जिसके पश्चात उनकी वाणी दिव्य हो गई। सांसारिक जीवन में साधारण मनुष्य के मन में हर पल विचारों का मेला लगा रहता है, हर क्षण उसके मन में एक नये विचार का उदय होता है। ऐसी स्थिति में मौन का पूरा लाभ तभी लिया जा सकता जब व्यक्ति बाहर के साथ-साथ अन्दर से मौन सुनिश्चित कर पाये और अंदर से मौन सुनिश्चित करने के लिए व्यक्ति को विचारों को भी संयमित करना होगा जो केवल ध्यान साधना से ही संभव है वैसे भी मौन और ध्यान दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसके लिये व्यक्ति को संसारिक कौतूहल व लोगों के भीड से दूर प्रकृति के बीच में जाकर प्रयास करना चाहिए क्योंकि प्रकृति  हर समय संसार को एक नया सन्देश देती है उसके कण कण में एक दिव्य संगीत की धुन सुनाई देती है जिससे व्यक्ति भीतर से धीरे धीरे शान्त होते जाता है और प्रकृति के हर शब्द को अपने भीतर अनुभव करने लगता हैँ। भ्रमरों के गुंजार की अनन्त ध्वनि व्यक्ति को सुनाई देने लगती है डालों पर बैठे पक्षियों के चहचहाने जैसे भैरवी स्वरों का आभास व्यक्ति को होने लगता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन मे आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को प्रकृति को समझना होगा जो कि अपने भीतर के मौन को जाग्रत करने से ही संभव है। 

मौन वास्तव में मनुष्य जीवन की वह संजीवनी शक्ति है जिससे व्यक्ति के प्राणों की ऊर्जा का पुन:विकास एवं उत्थान होता है। जीवन मे नित्यप्रति तीन या चार घंटे का मौन रखना लाभदायक होता है। मौन के निरन्तर अभ्यास से व्यक्ति की वाणी पवित्र होने लगती है और उसमें सत्यता जाग्रत होती है। ऐसा व्यक्ति वाणी से जो भी बोलता है वह सच होने लगता है। उसके व्यक्तित्व में गंभीरता आने लगती है और मन एकाग्रता की ओर बढ़ता है।  
मौन जब पूर्ण रूप से सिद्ध होकर लयबद्ध हो जाता है तब ऐसा महसूस होता है जैसे जीवन मे कोई विचार ही नहीं है और मन आत्मा में विलीन हो एक शान्त सागर जैसा प्रतीत होता है जहाँ  कोई लहरे नहीं उठती तब व्यक्ति एक रस में बहता चला जाता है। मौन में लहरों की भांति उठने वाले विचार विलीन हो जाते हैं। व्यक्ति को अहसास होता है कि जो 'मै' था वह केवल जड़ की अनुभूति थी। अब मै एक चेतना का सागर हूँ। परिपूर्ण मौन शान्ति के जल में मन की आहूति है।

मौन शान्ति का सन्देश है। यह स्वयं को ईश्वर से जुडने का सबसे सरल उपाय है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यस्त दिनचर्या में से कुछ क्षण निकालकर संकल्पबद्ध होकर प्रतिदिन मौन साधना में उतरकर परम शान्ति का अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। यह मनुष्य जीवन के लिए एक श्रेष्ठ तप है जो हमारे ऋषि-मुनियों की अमूल्य धरोहर है। 
                           

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घर में बहू चुनते समय संस्कार को वरीयता दे ना कि दहेज़

एक ऐसा सच जिसे बहुत कम लोग ही आज तक समझ पाये है कि - बुढापे की लाठी-"बहु" होती है न कि "बेटा"
हम लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है। इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापा अच्छे से कट जाए परन्तु ये बात केवल इतना ही सच है कि बेटे ही माध्यम होते है बहु को घर लाने के लिए बुढापे की लाठी तो बहू ही बनती है। बहु के आ जाने के बाद बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे में डाल देता है और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी, जी हाँ ये लगभग सत्य है कि वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर या माॅ-बाप अपना जीवन व्यतीत करते हैं।एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती कि वे कब और कैसी चाय पीते है, उनके लिए क्या खाना बनाना है, शाम में उन्हे नाश्ता क्या देना है, रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है ये बहु को ही पता होता है न कि बेटे को। अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो अक्सर पूरे मन या बेमन से कहे बहु ही देखभाल करती है, अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चली जाएं, बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो। वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे उन्हे कोई पूछेगा नही, उनका अपना बेटा भी नही क्योंकि बेटे को फुर्सत नही है और अगर बेटे को फुरसत मिल भी जाये तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है क्योंकि बेटो के तो केवल कुछ निश्चित सवाल है जैसे कि माँ-बाबूजी खाना खाएं,चाय नाश्ता किये या बीमार होने पर हास्पीटल तक छोड़ने तक ही वे अपनी जिम्मेदारी समझते है या ये कहे कि इससे ज्यादा उनके पास समय ही नही है लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं और ऐसा तभी संभव है जब वे उनके पास बैठे बाते करे लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज मे माता पिता भी अपने बच्चों के साथ कभी इतना समय नही दिये होते है कि बच्चे उनके पास बैठकर कुछ समय व्यतीत करे या बात चीत करे जिससे उन्हे अपने बूढ़े माता पिता की दिनचर्या पता रहे ऐसा इसलिए भी है कि बहुत से माता पिता अपने बच्चों से खुलना पसंद नहीं करते है  लगभग हर घर की यही कहानी है। हम सब अपने आस-पास अक्सर देखते सुनते होंगे कि बहुएं या बेटियां ही अंत समय मे अपनी सास ससुर की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी बिल्कुल एक बच्चे की तरह, जैसे बच्चे सारे काम बिस्तर पर करते हैं ठीक उसी तरह उसकी सास भी करती थी और बेचारी बहु उसको साफ करती थी, बेटा तो बचकर निकल जाता था किसी न किसी बहाने। ऐसे बहुत से बहुओ के उदाहरण हम सबको मिल जायेंगे। मैंने अपनी माँ व चाची को दादी की ऐसे ही सेवा करते देखा है वो बोलेंगी गुस्सा भी करेगी लेकिन आवश्यकता अनुरूप देखभाल भी करेगी। आपलोग में से ही कईयों ने अपने घर परिवार व समाज में बहुत सी बहुओं को अपनी सास-ससुर की ऐसी सेवा करते देखा होगा या कर रही होगी। कभी -कभी ऐसा होता है कि बेटा संसार छोड़ चला जाता है तब बहु ही होती है जो उसके माँ-बाप की सेवा करती है, ज़रूरत पड़ने पर नौकरी करती है लेकिन अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती ही बुढ़ापे की असली लाठी लेकिन अफसोस "बहु" की त्याग और सेवा उन्हे भी नही दिखती जिसके लिये सारा दिन वो दौड़-भाग करती रहती है। बहु के बाद यदि कोई और सास ससुर की सेवा करता तो वे पोते -पोती ही करते है लेकिन ये तभी संभव है जब बहू संस्कारी हो और सास ससुर ने उन्हें अपने घर लाने के बाद अच्छा सम्मान दिया हो क्यो कि घर का कोई नया सदस्य चाहे वो बहू हो या पोता पोती संस्कार तो अपने बड़ो से ही सीखते है।
इस लिए मेरा एक विनम्र निवेदन है आप सब लोगों से की बहू को #दहेज की तराजू में तौल कर मत लाइये बल्कि संस्कार शिक्षा व व्यवहार के तराजू पर तौल के लाइये क्योंकि बुढापे की लाठी बहू व उसके बच्चे ही बनेंगे न कि बेटा और भ्रूण हत्या का विचार भी मन से निकालिए खुशी मन से बेटियों का आगमन, जीवन मे ईश्वर का आशीर्वाद समझकर करें क्यो कि बेटियों का महत्व केवल बहू के रूप में लाने तक ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्व है इस सृष्टि की संरचना को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए।
आप सबसे  प्रार्थना है कि मेरे इस विचार को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं शायद कुछ लोग इस सत्यता को समझ सके और #दहेज रूपी दानव का अपने जीवन परिवार व समाज से बहिष्कार करने मे आगे आए।


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