Sunday 22 November 2020

घर में बहू चुनते समय संस्कार को वरीयता दे ना कि दहेज़

एक ऐसा सच जिसे बहुत कम लोग ही आज तक समझ पाये है कि - बुढापे की लाठी-"बहु" होती है न कि "बेटा"
हम लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है। इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापा अच्छे से कट जाए परन्तु ये बात केवल इतना ही सच है कि बेटे ही माध्यम होते है बहु को घर लाने के लिए बुढापे की लाठी तो बहू ही बनती है। बहु के आ जाने के बाद बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे में डाल देता है और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी, जी हाँ ये लगभग सत्य है कि वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर या माॅ-बाप अपना जीवन व्यतीत करते हैं।एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती कि वे कब और कैसी चाय पीते है, उनके लिए क्या खाना बनाना है, शाम में उन्हे नाश्ता क्या देना है, रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है ये बहु को ही पता होता है न कि बेटे को। अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो अक्सर पूरे मन या बेमन से कहे बहु ही देखभाल करती है, अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चली जाएं, बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो। वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे उन्हे कोई पूछेगा नही, उनका अपना बेटा भी नही क्योंकि बेटे को फुर्सत नही है और अगर बेटे को फुरसत मिल भी जाये तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है क्योंकि बेटो के तो केवल कुछ निश्चित सवाल है जैसे कि माँ-बाबूजी खाना खाएं,चाय नाश्ता किये या बीमार होने पर हास्पीटल तक छोड़ने तक ही वे अपनी जिम्मेदारी समझते है या ये कहे कि इससे ज्यादा उनके पास समय ही नही है लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं और ऐसा तभी संभव है जब वे उनके पास बैठे बाते करे लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज मे माता पिता भी अपने बच्चों के साथ कभी इतना समय नही दिये होते है कि बच्चे उनके पास बैठकर कुछ समय व्यतीत करे या बात चीत करे जिससे उन्हे अपने बूढ़े माता पिता की दिनचर्या पता रहे ऐसा इसलिए भी है कि बहुत से माता पिता अपने बच्चों से खुलना पसंद नहीं करते है  लगभग हर घर की यही कहानी है। हम सब अपने आस-पास अक्सर देखते सुनते होंगे कि बहुएं या बेटियां ही अंत समय मे अपनी सास ससुर की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी बिल्कुल एक बच्चे की तरह, जैसे बच्चे सारे काम बिस्तर पर करते हैं ठीक उसी तरह उसकी सास भी करती थी और बेचारी बहु उसको साफ करती थी, बेटा तो बचकर निकल जाता था किसी न किसी बहाने। ऐसे बहुत से बहुओ के उदाहरण हम सबको मिल जायेंगे। मैंने अपनी माँ व चाची को दादी की ऐसे ही सेवा करते देखा है वो बोलेंगी गुस्सा भी करेगी लेकिन आवश्यकता अनुरूप देखभाल भी करेगी। आपलोग में से ही कईयों ने अपने घर परिवार व समाज में बहुत सी बहुओं को अपनी सास-ससुर की ऐसी सेवा करते देखा होगा या कर रही होगी। कभी -कभी ऐसा होता है कि बेटा संसार छोड़ चला जाता है तब बहु ही होती है जो उसके माँ-बाप की सेवा करती है, ज़रूरत पड़ने पर नौकरी करती है लेकिन अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती ही बुढ़ापे की असली लाठी लेकिन अफसोस "बहु" की त्याग और सेवा उन्हे भी नही दिखती जिसके लिये सारा दिन वो दौड़-भाग करती रहती है। बहु के बाद यदि कोई और सास ससुर की सेवा करता तो वे पोते -पोती ही करते है लेकिन ये तभी संभव है जब बहू संस्कारी हो और सास ससुर ने उन्हें अपने घर लाने के बाद अच्छा सम्मान दिया हो क्यो कि घर का कोई नया सदस्य चाहे वो बहू हो या पोता पोती संस्कार तो अपने बड़ो से ही सीखते है।
इस लिए मेरा एक विनम्र निवेदन है आप सब लोगों से की बहू को #दहेज की तराजू में तौल कर मत लाइये बल्कि संस्कार शिक्षा व व्यवहार के तराजू पर तौल के लाइये क्योंकि बुढापे की लाठी बहू व उसके बच्चे ही बनेंगे न कि बेटा और भ्रूण हत्या का विचार भी मन से निकालिए खुशी मन से बेटियों का आगमन, जीवन मे ईश्वर का आशीर्वाद समझकर करें क्यो कि बेटियों का महत्व केवल बहू के रूप में लाने तक ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्व है इस सृष्टि की संरचना को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए।
आप सबसे  प्रार्थना है कि मेरे इस विचार को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं शायद कुछ लोग इस सत्यता को समझ सके और #दहेज रूपी दानव का अपने जीवन परिवार व समाज से बहिष्कार करने मे आगे आए।


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