Friday 5 May 2023

एक राजा जिसने बोधिसत्व प्राप्त कर स्वयं को चिरंजीव बना लिया।

हम सब बचपन से देखते आए है महात्मा गौतम बुद्ध की तस्वीरे और स्टैच्यू सर्वत्र विश्व में शांति और ध्यान की मुद्रा में ही उपलब्ध है। जो हमे यह सन्देश देती है की ज्ञान और ध्यान से ही जीवन में शांति व सद्भावना सम्भव है जहा इसकी कमी है वहा अशांति ही अशांति है। इस लिए ज्ञानार्जन और ध्यान का निरंतर अभ्यास जीवन में बहुत आवश्यक है। 
भारतीय पंचांग के अनुसार वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन नेपाल के लुम्बिनी क्षेत्र में ५६३ ईशा पूर्व में भगवान श्री राम के पुत्र कुश के कुल में कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोदन की धर्मपत्नी महारानी महामाया देवी के पुत्र के रूप में गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था जिनको उनके जन्म से लेकर सन्यास धारण करने से पहले तक सिद्धार्थ के नाम से जाना जाता था आगे चलकर इन्हें गौतम बुद्ध के नाम से पहचान मिली। बुद्ध के जन्म, बोध और निर्वाण के संदर्भ एक महत्त्वपूर्ण संयोग यह है कि वैशाख पूर्णिमा के ही दिन ३५ वर्ष की आयु में ५२८ ईशा पूर्व मे बोध गया बिहार में वटवृक्ष के नीचे आपको आत्मज्ञान प्राप्त हुआ जो वटवृक्ष आज भी बोधगया में मौजूद है और इसी दिन ४८३ ईशा पूर्व ८० वर्ष की आयु में कुशीनगर उत्तर प्रदेश में महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। 
देह छोड़ने के पूर्व बुद्ध के अंतिम वचन थे 
'अप्प दिपो भव:...सम्मासती। 
अपने दीये खुद बनो...स्मरण रखो कि तुम भी एक बुद्ध हो।
आज के दिन का दैवीय महत्व है क्यों कि इसी दिन देवी छिन्नमस्तिका और श्री हरि विष्णु ने कूर्म अवतार लिया था। आज के ही दिन ब्रह्मदेव ने काले और सफ़ेद तिलों का निर्माण भी किया था इसी लिए आज के दिन तिलों का प्रयोग करना शुभ माना जाता है।

गौतम बुद्ध शाक्यवंशी छत्रिय थे। शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का सोलह वर्ष की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। यशोधरा से उनको एक पुत्र मिला जिसका नाम राहुल रखा गया। बाद में यशोधरा और राहुल दोनों बुद्ध के भिक्षु हो गए थे। बुद्ध का लालन पालन उनकी मौसी गौतमी किया क्योंकि सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। बुद्ध के जन्म के बाद एक भविष्यवक्ता ने राजा शुद्धोदन से कहा था कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा लेकिन यदि वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया तो इसे महात्मा सन्यासी होने से कोई नहीं रोक सकता और इसकी ख्‍याति समूचे संसार में अनंतकाल तक कायम रहेगी। राजा शुद्धोदन सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनते देखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने सिद्धार्थ के आस-पास भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया ताकि किसी भी प्रकार से वैराग्य उत्पन्न न हो लेकिन राजा शुद्धोदन की यही गलती सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। वैराग्य भाव उत्पन्न होने के बाद एक बार सिद्धार्थ शाक्यों के संघ में सम्मलित होने गए। जहां उनका संघ के गुरुवों से विचारिक मतभेद हो गया। क्षत्रिय शाक्य संघ से वैचारिक मतभेद के चलते संघ ने उनके समक्ष दो प्रस्ताव रखे थे या तो वे फांसी पर चढ़ जाए या देश छोड़कर चले जाए। सिद्धार्थ ने कहा कि जो भी दंड उन्हें मिले स्वीकार है लेकिन शाक्यों के सेनापति ने सोचा कि दोनों ही स्थिति में कौशल नरेश को सिद्धार्थ से हुए विवाद का पता चल जाएगा और उन्हें दंड भुगतना होगा तब सिद्धार्थ ने कहा कि आप निश्चिंत रहें मैं संन्यास लेकिन चुपचाप ही देश से दूर चला जाऊंगा आपकी इच्छा भी पूरी होगी और मेरी भी आधी रात को सिद्धार्थ अपना महल त्यागकर 30 योजन दूर गोरखपुर के पास अमोना नदी के तट पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने अपने राजसी वस्त्र उतारे और केश काटकर खुद को संन्यस्त कर लिया। उस वक्त उनकी आयु 29 वर्ष थी। छः वर्षो की कठिन तपस्या के पश्चात् सिद्धार्थ को बोधिसत्व 528 वर्ष पूर्व 35 वर्ष की आयु में बिहार प्रदेश के बोधगया में वटवृक्ष के नीचे प्राप्त हुआ था जो आज भी विद्यमान है जिसे अब बोधीवृक्ष कहा जाता है। सम्राट अशोक इस वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका ले जाकर स्थापित किया यह शाखा भी आज मौजूद है।

श्रीमद्भागवत महापुराण और विष्णुपुराण में भी शाक्यों की वंशावली के बारे में उल्लेख पढ़ने को मिलता है। कहते हैं कि राम के 2 पुत्रों लव और कुश में से कुश का वंश ही आगे चल पाया। कुश के वंश में ही आगे चलकर शल्य हुए, जो कि कुश की 50वीं पीढ़ी में महाभारत काल में उपस्थित थे। इन्हीं शल्य की लगभग 25वीं पीढ़ी में ही गौतम बुद्ध हुए थे। शल्य के बाद बहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अंतरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य, शुद्धोधन और फिर सिद्धार्थ हुए, जो आगे चलकर गौतम बुद्ध कहलाए। इन्हीं सिद्धार्थ के पुत्र राहुल थे। राहुल के बाद प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमित्र हुए। 

बुद्ध के प्रमुख गुरु गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त थे जबकि बुद्ध के प्रमुख दस शिष्य- आनंद, अनिरुद्ध (अनुरुद्धा), महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, और उपाली (नाई) थे और बौद्ध धर्म के प्रचारकों में प्रमुख रूप से अंगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो, बोधिसत्व या बोधिधर्मा, विमल मित्र, वैंदा (स्त्री), उपगुप्त (अशोक के गुरु), वज्रबोधि, अश्वघोष, नागार्जुन, चंद्रकीर्ति, मैत्रेयनाथ, आर्य असंग, वसुबंधु, स्थिरमति, दिग्नाग, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित, कमलशील, सौत्रांत्रिक, आम्रपाली, संघमित्रा आदि का नाम लिया जाता है।
बुद्ध के धर्म प्रचार से उनके भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तो भिक्षुओं के आग्रह पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बौद्ध संघ में बुद्ध ने स्त्रियों को भी लेने की अनुमति दे दी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति सम्पन्न हुआ था जिसमे संघ के दो हिस्से हो गए थे हीनयान और महायान। सम्राट अशोक ने तृतीय बौद्घ संगती का आयोजन 249 ई.पू. में पाटलिपुत्र में कराया था उसके बाद भी सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखे जाने के बहुत प्रयास किए गए किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव को रोक पाना सम्भव नहीं हो पाया।

गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में लोगो को शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए व्यक्तिव में संतुलन की धारणा को मजबूत बनाए रखने पर बहुत बल दिया और कहा की मनुष्यों को भोग की अति से बचना जितना आवश्यक है उतना ही योग की अति अर्थात तपस्या की अति से भी बचना जरूरी है क्यों कि भोग की अति से चेतना का बिखराव हो जाता है विवेक लुप्त और संस्कार सुप्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति के दिल-दिमाग की पर विनाश का पहरा मदराने लगता है ठीक इसी प्रकार तपस्या की अति से देह दुर्बल और मनोबल कमजोर हो जाता है परिणामस्वरूप आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव नही हो पाती है क्योंकि कमजोर और मूर्च्छित मनोबल के आधार पर आत्मज्ञान प्राप्त करना वैसा ही है जैसा कि रेत की बुनियाद पर भव्य भवन निर्माण करने का स्वप्न संजोना।

गौतम बुद्ध का कहना है कि चार आर्य सत्य हैं 
पहला यह कि दुःख है। 
दूसरा यह कि दुःख का कारण है। 
तीसरा यह कि दुःख का निदान है। 
चौथा यह कि वह मार्ग है जिससे दुःख का निदान होता है।

गौतम बुद्ध के अनुसार अष्टांगिक मार्ग ही वह मध्यम मार्ग है जिससे दुःख का निदान होता है। अष्टांगिक मार्ग चूंकि ज्ञान, संकल्प, वचन, कर्मांत, आजीव, व्यायाम, स्मृति और समाधि के संदर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है, अतः मध्यम मार्ग है। मध्यम मार्ग ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, निर्वाण देने वाला है अतः कल्याणकारी है और जो कल्याणकारी है वही श्रेष्ठ जीवन के लिए श्रेयस्कर है।

गौतम बुद्ध विश्वकल्याण के लिए मैत्री भावना पर बल देते हैं। ठीक वैसे ही जैसे महावीर स्वामी ने मित्रता के प्रसार की बात कही थी। गौतम बुद्ध मानते हैं कि मैत्री की महक से ही संसार में सद्भाव का सौरभ फैल सकता है। वे कहते हैं कि बैर से बैर कभी नहीं मिटता यह केवल मैत्री से ही बैर मिटता सकता है।

शोध बताते हैं कि दुनिया में सर्वाधिक प्रवचन बुद्ध के ही रहे हैं। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने जितना कहा और जितना समझाया उतना किसी और ने नहीं। सैकड़ों ग्रंथ है जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य यह कि उनमें कहीं भी दोहराव नहीं है। 35 की उम्र के बाद बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय और धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो ‍कुछ भी कहा वह त्रिपिटक में संकलित है। त्रिपिटक अर्थात तीन पिटक- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के एक अंश धम्मपद को पढ़ने का ज्यादा प्रचलन है। इसके अलावा बौद्ध अनेक जातक कथाएं विश्व प्रसिद्ध हैं। जिनके आधार पर ही ईशा की कथाएं निर्मित हुई। यही कारण है कि पश्चिम के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक बुद्ध और योग को पिछले कुछ वर्षों से बहुत ही गंभीरता से ले रहे हैं। चीन, जापान, श्रीलंका और भारत सहित दुनिया के अनेक बौद्ध राष्ट्रों के बौद्ध मठों में पश्चिमी देशों के लोगो की तादाद बढ़ी है। सभी अब यह जानने लगे हैं कि पश्चिमी धर्मों में जो बाते हैं वे बौद्ध धर्म से ही ली गई है क्योंकि बौद्ध धर्म, ईसा मसीह से 500 साल पूर्व पूरे विश्व में फैल चुका था। दुनिया का ऐसा कोई हिस्सा नहीं बचा था जहां बौद्ध भिक्षुओं के कदम न पड़े हों। दुनिया के हर इलाके में खुदाई में भगवान बुद्ध की प्रतिमा निकलती है। दुनिया की सर्वाधिक प्रतिमाओं का रिकॉर्ड भी बुद्ध के नाम दर्ज है। बुत परस्ती शब्द की उत्पत्ति ही बुद्ध शब्द से हुई है। बुद्ध के ध्‍यान और ज्ञान पर बहुत से राष्ट्रों में आज भी शोध जारी है।
ऐसा प्रमाण मिलता है कि भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं के आग्रह पर उन्हें वचन दिया था कि मैं 'मैत्रेय' से पुन: जन्म लूंगा। तब से अब तक 2500 साल से अधिक समय बीत गया। कहते हैं कि बुद्ध ने इस बीच कई बार जन्म लेने का प्रयास किया लेकिन कुछ कारण ऐसे बने कि वे जन्म नहीं ले पाए। थियोसॉफिकल सोसाइटी ने जे. कृष्णमूर्ति के भीतर उन्हें अवतरित होने के लिए सारे इंतजाम किए लेकिन वह प्रयास भी असफल सि‍द्ध हुआ। अंतत: ओशो रजनीश ने उन्हें अपने शरीर में अवतरित होने की अनुमति दे दी थी। उस दौरान जोरबा दी बुद्धा नाम से प्रवचन माला ओशो के कहीं। 


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